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मंगलवार, 24 अक्टूबर 2017

पर्यावरण संदेषित काव्य गोष्ठी ---डा श्याम गुप्त




पर्यावरण संदेषित काव्य गोष्ठी -----
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कल दिनांक २२-१०- १७ को कविवर श्री राजेन्द्र वर्मा के आवास ३/२९, विकास नगर पर एक कविगोष्ठी हुई, जिसमें पटना से पधारे पर्यावरणविद डॉ. मेहता नगेन्द्र सिंह के अलावा स्थानीय कवियों ने भाग लिया।
------कवि-गोष्ठी की शुरुआत प्रसिद्ध कवि-गज़लकार देवकीनंदन शांत के काव्यपाठ से हुई । उन्होंने प्रकृति और मानव के रिश्ते को उजागर करते हुए एक ग़ज़ल पढ़ी :
आग-पानी-हवा है, माटी है----
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तन का दीपक है, मन की बाती है ।
दूसरों के लिए जो जीते हैं
उनको ही ज़िन्दगी सुहाती है ।

------ ग़ज़ल-पाठ के क्रम को आगे बढ़ाया जाने-माने ग़ज़लगो श्री कुँवर कुसुमेश ने । अपनी ग़ज़ल में उन्होंने उदात्त भावों को इस प्रकार रखा :
न अमीर है, न ग़रीब है ,
मेरा यार अहले-नसीब है ।
------ इसी भावभूमि पर डॉ. सुरेश उजाला ने एक रचना पढ़ी :
हर कठिन कार्य को आसाँ बनाइए,
ज़िन्दगी के बोझ को हँस के उठाइए ।
-------प्रसिद्ध हास्यकवि डॉ. डंडा लखनवी ने उद्बोधन देते हुए कहा :
धीरे चलते रहिए, थकन लगे, पग मलते रहिए ।
जड़ता लोकतंत्र की बैरन, नायक सदा बदलते रहिये |
जड़ता लोकतंत्र की बैरन, नायक सदा बदलते रहिये |
जड़ता लोकतंत्र की बैरन,नायक सदा बदलते रहिए ।
----------कवि अमरनाथ ने दोहों से गोष्ठी में यथार्थ का रंग भरा :
गूँज उठी थी रात में, सन्नाटे की चीख ।
गुंडों ने क़ब्ज़ा किया, रोजी जिसकी भीख ।।
--------प्रसिद्ध कथाकार-कवि अखिलेश श्रीवास्तव ‘चमन’ ने अपनी रचना में पर्यावरण के प्रति सचेत रहने को कहा अन्यथा उसके दुष्परिणाम हमें भुगतने होंगे :
ख्वाहिशों का, लालचों का यह सिला हो जाएगा,
दूर तक बरबादियों का सिलसिला हो जाएगा ।
पेड़-परबत-नदी-धरती चीखकर कहने लगे,
गर नहीं चेतेगा इंसाँ, ज़लज़ला हो जाएगा ।
---------देश के प्रसिद्ध कवि वाहिद अली वाहिद ने भी पर्यावरण तथा अन्य विषयों पर अपनी कविताओं के सस्वर पाठ से गोष्ठी को कवि-सम्मलेन जैसी ऊँचाई प्रदान की ।
--------संचालक राजेन्द्र वर्मा ने एक ग़ज़ल पढ़ी जो केवल काफ़िये और रदीफ़ पर आधारित थी । मतला था :
चाँदनी में हैं सभी, मैं ही नहीं हूँ,
तिश्नगी में हैं सभी, मैं ही नहीं हूँ ।
--------अतिथि डॉ. मेहता ने प्रकृति को बचाने हेतु आत्ममंथन का आह्वान किया :
हवा हुई ज़हरीली कैसे, मैं भी सोचूँ, तू भो सोच |
फ़ज़ा बनी ये नशीली कैसे, मैं भी सोचूँ, तू भो सोच !
नदी उतरती जब पर्वत से, निर्मल रहती है लेकिन,
नदी हुई मटमैली कैसे, मैं भी सोचूँ, तू भो सोच !
--------गोष्ठी के अध्यक्ष डॉ. श्याम गुप्त ने अपने अध्यक्षीय भाषण में गोष्ठी में प्रस्तुत कविताओं पर संक्षिप्त टिप्पणियाँ करते हुए पर्यावरण के बचाने की बात कही । काव्यपाठ में उन्होंने ज़माने के व्यवहार पर टिपण्णी करते हुए एक आगी एवं एक ग़ज़ल से कहा :
कम संसाधन/ अधिक दोहन/
न नदिया में जल/ न बाग़ न्गीचों का नगर /
न कोकिल की कूक/ न मयूर की नृत्य सुषमा/
कहीं अनावृष्टि, कहीं अति वृष्टि
किसने किया भ्रष्ट /
प्रकृति सुन्दरी का यौवन |
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दर्दे-दिल सँभालकर रखिए,
ज़ख्मेदिल सँभालकर रखिए ।
----------गोष्ठी के अन्त में सभी कवियों ने पर्यावरण को प्रदूषित न करने तथा उसे संरक्षित करने की शपथ ली ।
बाएं से- डॉ मेहता, डॉ डंडा लखनवी, मैं (राजेन्द्र वर्मा), डॉ श्याम गुप्त, अमरनाथ, कुंवर कुसुमेश, वाहिद अली वाहिद, सुरेश उजाला तथा कैलाशनाथ तिवारी।


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