वानरों की कैद में, जकड़ा हुआ है आदमी।।
सभ्यता की आँधियाँ, जाने कहाँ ले जायेंगी,
काम के उद्वेग ने, पकड़ा हुआ है आदमी।
छिप गयी है अब हकीकत, कलयुगी परिवेश में,
रोटियों के देश में, टुकड़ा हुआ है आदमी।
हम चले जब खोजने, उसको गली-मैदान में
ज़िन्दग़ी के खेत में, उजड़ा हुआ है आदमी।
बिक रही है कौड़ियों में, देख लो इंसानियत,
आदमी की पैठ में, बिगड़ा हुआ है आदमी।
“रूप” तो है इक छलावा, रंग पर मत जाइए,
नगमगी परिवेश में, पिछड़ा हुआ है आदमी।
|
यह ब्लॉग खोजें
गुरुवार, 5 जून 2014
"बिगड़ा हुआ है आदमी" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
फ़ॉलोअर
मेरी नवीन प्रकाशित पुस्तक---दिल की बात, गज़ल संग्रह ....डॉ. श्याम गुप्त
दिल की बात , गज़ल संग्रह का आत्मकथ्य – काव्य या साहित्य किसी विशेष , काल...
-
निमंत्रण पत्र ...लोकार्पण समारोह----- अभिनन्दन ग्रन्थ 'अमृत कलश' -----डा श्याम गुप्त लोकार्पण समारोह----- अभिनन्दन ग्रन्थ ...
-
हार में है छिपा जीत का आचरण। सीखिए गीत से , गीत का व्याकरण।। बात कहने से पहले विचारो जरा मैल दर्पण का अपने उतारो जरा तन...
-
मेरे द्वारा की गयी पुस्तक समीक्षा-- ============ मेरे गीत-संकलन गीत बन कर ढल रहा हूं की डा श्याम बाबू गुप्त जी लखनऊ द्वारा समीक्षा आज उ...
बिक रही है कौड़ियों में, देख लो इंसानियत,
जवाब देंहटाएंआदमी की पैठ में, बिगड़ा हुआ है आदमी।
शास्त्री जी बहुत सुन्दर ..यथार्थ परक ...कब मानव मानव बनेगा
भ्रमर ५