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बुधवार, 12 जुलाई 2023

डॉ.श्याम गुप्त की संतुलित कहानियाँ----अतिसुखासुर..अब पोते को पालती

 

. अतिसुखासुर...
     
पृथ्वी गाय का रूप धर कर ब्रह्मलोक पहुँची| उसी समय सभी देव-गण भी त्राहिमाम-त्राहिमाम कहते हुए ब्रह्मलोक पहुंचेभगवन! यह अतिसुखासुर उसके मित्रगण, मंत्रीगण-आतंकासुर, प्लास्टिकासुर, भ्रष्टासुर, कूड़ासुर मंडली ने तीनों लोकों में त्राहि-त्राहि मचा रखी है, सभी एकसाथ 'पितामह बचाइये' की गुहार करने लगे|
       
पृथ्वी बोली,भगवन! ये कूडासुर-प्लास्टिकासुर के आतंक से कब मुक्ति मिलेगी? प्रभो! बहुत समय से मैं अपने सारे शरीर में, गर्भ में, उदर में घाव सहकर भी पृथ्वी के मानवों-जीवों के हितार्थ सब कुछ धारण-धरण करती रही हूँ, सहन करती रही हूँअब तो मेरा सारा बदन भी जीर्ण-शीर्ण कर दिया है इन मानवों ने ही, इन असुरों के साथ मिलकर | अट्टालिकाओं के बोझ, खनन-यंत्रों आदि से मेरा अंग-भंग करके रख दिया है | मेरे ह्रदय रूपी रक्त-भण्डार, सभी भूगर्भीय जलाशय सूखते जारहे हैं| नदियों-नहरों रूपी रक्त-वाहिनियों में, नस-नस में कूडासुर व्याप्त है | अबतक तो फल-फूल,पत्ती-घास आदि के प्राकृतिक अंशों के उच्छिष्ट को तो मैं अपने उदर में पुनः समाहित कर लेती थीवायुदेव, वरुणदेव, सूर्यदेव, इंद्र, अग्नि आदि की सहायता-कृपा से उनका वातावरण में पुनर्समाहित कर लेती थी | परन्तु इस नवीन अप्राकृतिक असुर-तत्व कूड़ासुर के अंशों को तो मैं भी नाश नहीं कर पाती| सूर्य, अग्नि, वायु, वरुण आदि भी विवश हैं | जाने कौन से दानवी-वाजीकरण विद्या से इस प्लास्टिकासुर का अवतार हुआ है कि यह मेरे, जल, अग्नि, वर्षा, धूप, वायु, गर्मी किसी के वश में नहीं आरहा है ! भोग, एश्वर्य, सुख के लालच की राह दिखाकर इस अति-सुखासुर के मंत्री लोभासुर ने मानव को इतने वश में कर लिया है कि मानव स्वयं ही दानव बनने की कगार पर है |"
       
मातरिश्वा पवनदेव बड़े दीन स्वर में कहने लगे, 'देव, इस अतिसुखासुर नामक दैत्य के वशीकरण में मानव ने भी दानव का रूप धारण कर लिया है, और हमें विविध भांति से बंदी बनाया गया हैएयर-कंडीशन नामक तंत्र-शक्ति से हमारा स्वतंत्र विचरण तो आबद्ध हुआ ही है अब तो स्वयं मानव भी मुक्त गगन में विचरण योग्य नहीं रह गया है | कमरे के अंदर कृत्रिम शीतलता हेतु वायुमंडलीय वातावरण अति-गर्म होता जारहा है | हम वर्षा करने लायक भी नहीं रह पारहे हैं |'
      
वरुणदेव बोले, 'पितामह! हमें तो मानवों ने स्वनिर्मित सागरों जिन्हें तरण-ताल कहते हैं नकली जलधारा-फाउंटेन, शावर आदि में कैद कर लिया है| नदियों, झीलों, सागरों में अब लोग स्नान करने आते ही नहीं | उन्हें तो मल-मूत्र, विष्ठा, कूड़ा-करकट बहाने का स्रोत बना रखा है| मेरा स्वयं का नगर सागर भी कूड़े के अम्बार से प्रदूषित है | जल-जीवों का अस्तित्व खतरे में है साथ में जीवन का अस्तित्व भी | आचमन योग्य जल बोतलों,पाउचों में आबद्ध होकर बिक्रय होने लगा है |
     
परेशान ब्रह्मदेव ने अग्नि की ओर देखा तो वे कहने लगे,' प्रभु, मेरी स्वतंत्र गतिविधियों पर भी पावंदी लगा दी गयी है| बल्व, सीएफएल, ट्यूब, इलेक्ट्रिक-हीटर, गीज़र, हॉट-प्लेट, प्रेसर-कुकर, ओवन जाने क्या क्या विविध शस्त्रों को मानव ने प्रयोग करके मेरे विविध रूपों को माइक्रोवेव, इलेक्ट्रिक, इलेक्ट्रोनिक-शक्ति, सोलर-पावर आदि में सजाकर मेरे स्वतंत्र विचरण पंख फैलाकर उड़ने की शक्ति को स्तंभित कर रखा है |'
    
तभी देवर्षि नारद जी नारायण नारायण के स्वर के साथ वीणा बजाते हुए अवतरित हुए, बोले,' श्रीहरि नारायण ही कुछ उपाय सुझा सकते हैं |.
    
ब्रह्मा जी तुरंत पृथ्वी सभी देवों के साथ क्षीर-सागर स्थित नारायण-धाम पहुंचेश्रीहरि विष्णु शेषशय्या पर शयनरत थे, माता लक्ष्मी उनके चरण दबा रहीं थी | मुस्कुराते हुए नारायण ने नेत्र खोले--
   नारायण नारायणनारद जी ने हाथ जोड़ कर अभिवादन किया |
    
कहिये देवर्षि, 'संसार के क्या समाचार हैं |', विष्णु जी बोले | 'प्रणाम ब्रह्मदेव, स्वागत है |'
    
ब्रह्मा जी बोले, 'आप तो सर्वज्ञ हैं नारायण ! हे श्रीहरि, पृथ्वी देवों के कष्ट दूर करने का उपाय बताएं |

अपनी मोहिनी मुद्रा में मुस्कुराते हुए नारायण कहने लगे, 'मैं देख रहा हूँ कि मानव अपने मानवीय गुणों-सदाचरण, परोपकार, अपरिग्रह आदि को भूल चुका है | इसीलिये उसपर आसुरीतत्व हावी हो रहे हैं| लगता है

इस बार दैत्यों ने नवीन व्यूह कूटनीति रची है | मानव को आचरणहीन करके उसमें दानवत्व-असुरत्व भाव उत्पन्न करके, उनके द्वारा देवों को दाय-भाग, यज्ञ-भाग से बंचित करके देवों को कमजोर, श्रीहीन असहाय करके स्वर्ग-लोक पर अधिकार हेतु नवीन रणनीति अपनाई है| क्योंकि हर बार मानव ही देवासुर संग्रामों में देवों का सहायक होता रहा है |'
    '
त्राहिमाम..त्राहिमाम...भगवन ! सबने करबद्ध होकर आशान्वित भाव से विष्णु की ओर देखा |
    '
कुछ करिए, श्रीहरि! ब्रह्माजी नारद जी बोले| पृथ्वी भी कातर दृष्टि से टकटकी लगा कर विष्णु जी की ओर देखने लगी |
        
विष्णु जी गंभीर  वाणी में कहने लगे,' हे देवो ! आप स्वयं ही अपने प्रमादवश अकर्मण्यता अहं के कारण असुरों को अपनी विविध शक्तियों का प्रयोग करने दिया करते हैं | उचित समय रहते उपयुक्त आवश्यक क्रियाशीलता प्रदर्शित नहीं करते| अतः मानव पर आसुरों का प्रभाव बढ़ने लगता है जो सृष्टि देवत्व के लिये एवं  स्वयं मानव के लिए घातक होता है |'
       '
मै शीघ्र ही भूलोक पर श्री सत्याचरण जी उनकी धर्मपत्नी श्रीमती धर्मचारिणी के पुत्र सदाचरण के रूप में अवतार लूंगा | लक्ष्मी जी सत्कर्म रूप से उपार्जित धन-धान्य श्री के रूप में, एवं शेषजी नीति-युक्त कर्म के रूप में जन्म लेंगें | श्री कमल-प्रकृति -प्रेम के रूप में, श्री चक्र--दुष्ट-दमनक जन सुखकारक राज्य-चक्र के रूप में, शंख -जन सद-सुविचार क्रान्ति तथा गदा कठोर धर्मानुशासन के रूप में मेरे साथ जन्म लेंगे | सारे देवता भी न्याय, धर्म, नीति, कर्म, सत्संग, करुणा, प्रेम, भक्ति ज्ञान आदि के रूप में जन्म लेकर मानव आचरण को पुनर्स्थापित करेंगे |'
      '
अति-सुखासुर में ही सभी अन्य असुरों- प्लास्टिकासुर, कूडासुर, भ्रष्टासुर, आतंकासुर, लोभासुर आदि के प्राण बसते हैं| मैं उसका संहार करके, आसुरी माया का विनाश करके पृथ्वी का उद्धार करूंगा |.
      
इतना कहकर श्रीहरि नारायण पुनः योग-निद्रा में लीन होगयेसारे देवता, ब्रह्माजी, पृथ्वी नारद जी नारायण..नारायण कहते हुए अपने-अपने धाम को पधारे |       

                                       

                     .अब पोते को पालती... 

       अब पोते को पालती, पहले पाली पूत ..वाह! क्या सच्चाई बयान करती कविता है |’ सत्यप्रकाश जी कविता पढकर भाव-विभोर होते हुए कहने लगे,’आजकल यही तो होरहा है,बच्चे माँ-बाप को आया बनाकर लेजाते हैं,रखते हैं अपनी संतान के पालन हेतु| बेचारी माँ पहले पुत्र-पुत्रियों को पालती रही अब इस उम्र में पोतों को;स्वयं लिए कब समय मिलेगा|’ वे क्लब-हाउस में मित्रों के साथ बैठे पत्रिकाएं आदि पढ़ रहे थे |

      अरे ! क्या पोतेपोतियों को पालना स्वयं का कार्य नहीं है,‘साथ में बैठे जोशी जी बोले,‘वह भी तो स्वयं का कार्य ही है,अपनी संतान का| कवि भ्रमित-भाव है,अनुभव की कमी है अभी|’

       पर ठीक तो है जी,इस प्रकार अपने स्वयं के लिए समय मिला ही कब| कवि तो वर्त्तमान का यथार्थ,भोगा हुआ,देखा हुआ यथार्थ लिखताहै |’,सत्यप्रकाश जी ने कहा |

       हाँ हाँ, वर्तमान का वर्णन तो कवि का सामयिक दायित्व है, परन्तु अनुचित भाव-कथ्य या बिना विषय की गंभीरता पर सोचे विचारे तथ्य कवि को नहीं रखने चाहिए,जैसे इस कविता में| भई,अपने लिए समय क्या? क्या नाती-पोतों को पालना आयागीरी कहलायेगी| यह तो सदा से ही होता आया है,कोई नयी बात थोड़े ही है| पहले कभी तो यह प्रश्न नहीं उठा| सम्मिलित परिवारों में भी नाती-पोते सदा बावा-दादी ही तो पालते हैं| पुत्र, जो इस समय पिता है घर का मुखिया रूप में है, को तो कार्य से समय ही कब मिल पाता है| तभी तो पोते में सदा दादा के संस्कार जाते हैं| कहाबत भी है...”मूल से अधिक ब्याज प्रिय होती हैपोतेपोतियों को पालना,खिलाना सबसे बड़ा सुख मनोरंजन है|’ जोशी जी बोले |

      परन्तु एक सच बात को लिखने में क्या बुराई है ?’

      हाँ..s s s, पर एक बुराई को दृश्यमान करने हेतु क्या आप एक अन्य सामाजिक प्रथा को बुरी बनने में सहायक होंगे?,’ जोशी जी बोले |

           कैसे ?

           माँ-बाप को जो स्वच्छंदता पसंद हैं, कुछ पैसा भी है या पाश्चात्य विचार-धारा से प्रभावित हैं, उनको यह सन्देश जाता है कि अरे! जब सब मौज कर रहे हैं तो हम भी क्यों मौज मस्ती में गुजारें ये दिन| आजकल यूं भी हर बिंदु पर, चाहे टीवी सीरियल विज्ञापन हो या सिनेमा,समाचार-पत्र,ट्रेवल एजेंसी के विज्ञापन आदि सभी मौज-मस्ती कराने के विज्ञापनों से भरे रहते हैं| वे अपने लिए तो कमाने का ज़रिया, धंधे का ज़रिया ढूँढते हैं और वरिष्ठजनों को ललचाते रहते हैं इस उम्र में भी मौज-मस्तीमनोरंजन हेतु, घूमने हेतु| नाती-पोतों में फंसने से बचने हेतु| यह स्थिति समाज को विभक्त करती है| पीढ़ियों के मध्य दूरी,जेनेरेशन गैप,को अधिक चौड़ा करती है| समाज में और अधिकतम कमाने की प्रवृत्ति और आपसी वैमनस्यता,विषमता के बीज फैलाती है|,जोशी जी ने अपना कथन स्पष्ट किया|

         तो कवि क्या लिखे,पौराणिक कथाएं?’ मेज के दूसरी ओर बैठे सुरेश जी ने वार्तालाप में भाग लेते हुए कहा तो सत्यप्रकाश जी सब हंसने लगे |

      हाँ,लिख सकते हैं,लिखना चाहिए,जोशीजी भी हंस कर कहने लगे,परन्तु अद्यतन सन्दर्भ के साथ,आज की परिस्थितियों की विवेचना,पुरा से तुलना करके यथा-तथ्य बताना सार्थक साहित्य का दायित्व है|

        क्या पुरा साहित्य सब सच होता है?’अस्थाना जी पूछने लगे |

        हो भी सकता है,परन्तु वही साहित्य इतने लंबे समय तक जीवित रहता है जो सत्य के निकट हो अथवा जो सत्य को एवं समाज हेतु आवश्यक तथ्यों को उद्घाटित करता है चाहे वह रचना में वास्तविक हो या कल्पित | साहित्य समाज का इतिहास होता है | साहित्यिक कथाओं के पात्र सदैव समाज में होते हैं भले ही कथा में वे कल्पित हों,जैसे ये कविता,जोशीजी सत्यप्रकाश जी की ओर उन्मुख होकर कहने लगे, जो अभी आपने पढ़ी,वह भी यह बताने में तो समर्थ है ही कि आज के समाज में एसा भी सोचा जाता था, होता भी था| यदि कविता दीर्घजीवी हुई तो |’

           तो क्या जो समाचार मिल रहे हैं या मिलते हैं कि माता-पिता के साथ बेटे दुर्व्यवहार कर रहे हैं, यह स्थिति उचित है या समाचार असत्य हैं |’ सत्य जी ने प्रश्न उठाया |

          उचित कैसे कहा जा सकता है ? समाचार सत्य हो या असत्य| देखिये, दुर्व्यवहार तो श्रवणकुमार के माता-पिता के साथ भी हुआ था सतयुग में | वास्तव में आज ये घटनाएँ मूलतः स्वार्थ,अति-भौतिकता वाली धन आधारित सोच जीवन शैली व्यवस्था के कारण हैं| मुझे लगता है अधिकाँश बच्चे सामयिक वस्तु-स्थिति के दबाव मज़बूरी वश ऐसा करते हैं, मन ही मन वे अवश्य ही आत्म-ग्लानि पीड़ा से ग्रस्त रहते हैं| तभी तो वे प्राय: नर्वस, चिडचिडे हो जाते हैं और इससे पति-पत्नी झगड़े. अन्य द्वंद्वों के कारक उत्पन्न होते हैं| क्या दया, प्रेम, सांत्वना उचित सुझाव की अधिकारी नहीं है आज की पीढ़ी?’            

.    क्या आज की पीढ़ी हमारे सुझाव मानती है ?’ अस्थाना जी कहने लगे |

     हाँ, यह भी एक पृथक समस्या है परन्तु वे दया, प्रेम, सांत्वना उचित सुझाव के अधिकारी तो हैं ही |’ सत्यप्रकाश जी ने कहा |

     माता-पिता भी यदि उन्हें अपने समय की दृष्टि से तौलते हुए चलाना चाहते हैं तो भी द्वंद्व बढ़ते हैं | जब तक नाती-पोते छोटे होते हैं तभी अधिक आवश्यकता होती है दादा-दादी की,परिवार की| यदि ऐसे समय पर आप उनके साथ नहीं होंगे,घूम फिर रहे,मस्ती कर रहे होंगे,अपनी ज़िंदगी जी रहे होंगे तो और आपकी अधिक उम्र होने पर वे क्यों आपके काम आयेंगे | हाँ,आप काफी धनपति हैं तो अलग बात है|’ जोशी जी हंस कर बोले |

       अरे ! तब तो वे आपके आगे-पीछे भी लगे रहेंगे परन्तु सिर्फ स्वार्थ हेतु या फिर एकदम किनारा कर लेंगे|’ सुरेश जी बोले |

      जहां तक विदेश में बसे भारतीयों के माँ-बाप की बात है| वहाँ साथी, समाज, कोई अपना तो आराम भी बंधन हो जाता है और मशीन की भांति पोते-पोतियों को पालना-खिलाना भी बंधन लगने लगता है | उनके स्कूल जाते ही वे नितांत अकेले होजाते हैं| किसके पास समय है उन्हें पूछने के लिए । वहाँ की कल्चर भी प्रभावित करती है व्यवहारों को, जिसे आधुनिक से आधुनिक भारतीय माँ-बाप नहीं झेल पाते | वही सब बंधन, उपेक्षा, शोषण,पीडन लगने लगता है |’जोशी जी ने कहा |

     यह सब तो अब यहाँ भी होता है |’,अस्थाना जी बोले |

     सही कहा,यह सब साहित्यकारों,कवियों समाज शास्त्रियों को सिर्फ कहने की अपेक्षा इसका युक्ति-युक्त समाधान भी प्रस्तुत करना चाहिए |’जोशी जी कहते जा रहे थे |

     तभी जोशी जी की पत्नी,कुसुम जी आकर कहने लगीं,’मुझे भी कहाँ समय मिलता है अपने लिए, दिन भर राघव की देखभाल में लग जाता है|एक फुल-टाइम आया भी रखी हुई है फिर भी |’

      आपको किसलिए टाइम चाहिए ?’ जोशीजी पूछने लगे |

      कथा, सत्संग, भजन-कीर्तन मंडली में मन बहलाने के लिए |वहाँ अपने शहर में तो किटी, सहेलियों,पडौसी आना-जाना लगा ही रहता था,सब छूट गया |’  

      वह भी एक महत्वपूर्ण काल-भाग था जीवन का,आप भोग चुके | वैसे पोते को पालने-खिलाने, बड़ा करने,पढाने-लिखाने से बड़ा कीर्तन क्या होगा| भविष्य की संतति,बाल-रूप भगवान की सेवा से बढकर क्या भजन, पूजा दुनिया की सैर होगी ? अपने पुत्र-पुत्री पालते समय भी तो कभी कभी एसा अनुभव हुआ होगा कि क्या-क्या छूटा जारहा है जीवन में,क्यों| जोशी जी हंसते हुए पत्नी से पूछने लगे|  

     हाँ, लगता तो था, पर दायित्व-बोध था,कुसुम जी बोलीं,’आजकल के बच्चे तो अपने बच्चों को समय देने की अपेक्षा नौकरी,पार्टी,मीटिंग को अधिक समय देते हैं | यदि वे बच्चों के प्रति अपना दायित्व ठीक से निभाएं, कुछ ऐसा रहे कि वे भी अपने बच्चों को और अधिक समय दें तो दादा-दादी को अखरेगा नहीं,दिन भर जुटना नहीं पडेगा| उन्हें भी स्पेस चाहिए| संयुक्त परिवार की भांति घर में ही दायित्व निर्वहन के साथसाथ खेल-कूद,पार्टी,मनोरंजन सब करें |’

     पर वह तो संयुक्त परिवार की बात है | वहाँ तो दायित्व कार्य का विभाजन होजाता है | यहाँ आजकल तो पति-पत्नी दोनों ही काम पर जाते हैं अन्यथा परिवार की आय कैसे बढ़ेगी| पत्नियां भी व्यावसायिक व्यस्तता के चलते घर बच्चों पर कम समय दे पाती हैं|‘ जोशीजी ने कहा |

      हाँ, यही तो सच है आज का,अधिक और अधिक कमाई,अर्थ-युग की मेहरबानी|’ कुसुम जी कहने लगीं,’जिन बच्चों के माँ-बाप नहीं है पोतों की देखभाल हेतु या नहीं उपलब्ध हैं किसी कारणवश, वे आया रखते हैं बच्चों के लिए | आया पर जहां सिर्फ दस हज़ार खर्च होते हैं तो पत्नी पचास हज़ार कमाकर लाती है|’

       हूँ, जोशी जी बोले,’अर्थ लाभ तो है ही,परन्तु बच्चों का भाग्य,जो बच्चे पचास हज़ार की क्षमता वाली स्त्री से पलने चाहिए वे दस हज़ार वाली से पल रहे हैं |’

       सब हंसने लगे तो वे पुनः कहने लगे,मैं समझता हूँ ऐसे में जो बावा-दादी अपने पोते-पोतियों को पाल रहे हैं वे बहुत बड़े सामाजिक,साथ ही साथ राष्ट्रीय मानवीय दायित्व का निर्वहन कर रहे हैं|’

      बहुत से बच्चे, बावा-दादी के होते हुए भी बच्चे के लिए आया रखते हैं ताकि उन्हें अधिक कष्ट हो |’सुरेश जी ने कहा |

       पर आया, उन्हें लिफ्ट कहाँ देती है| स्वयं को मेम-साहब की अनुपस्थिति में मालकिन समझती है| वह तो बावा-दादी को ही बच्चे पालना सिखाने लगती है| कभी-कभी बच्चों की दुर्गति देखकर उन्हें और अधिक कष्ट होता है| शिशुगृहों(क्रेच) में भी बच्चे पलते हैं परन्तु वहाँ के हालात सब जानते हैं| भई! असली-नकली में अंतर तो होता ही है|’ जोशी जी ने कहा |

        रोने गाने से क्या लाभ?.सत्यप्रकाश जी कहने लगे,’ आप कुछ कर पाते हैं हम | यह युग चलन है| नाती-पोते खिलाते रहो,पुण्य कमाते रहो,समय मिले कविता पढते रहो,गुनगुनाते-गाते रहो, मस्त रहो |’ सत्यप्रकाश जी ने जैसे  अपना निर्णय सुनाया|

      सच है, पर कवि को तो कविता में दुविधा-भाव वाले तथ्यों अनुचित बात पर तूल देने की अपेक्षा समस्या का समाधान भी देना चाहिए |’ कहकर जोशी जी हंसने लगे |

                                    

 

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