कार्तिक अगहन पूस ले, आता जब हेमन्त
मन की चाहत सोचती, बनूँ निराला पन्त |
शाल गुलाबी ओढ़ कर, शरद बने हेमंत |
शकुन्तला को ढूँढता , है मन का दुष्यन्त |
कोहरा रोके रास्ता , ओस चूमती देह
लिपट-चिपट शीतल पवन,जतलाती है नेह |
ऊन बेचता हर गली , जलता हुआ अलाव
पवन अगहनी मांगती , औने - पौने भाव |
मौसम का ले लो मजा, शहरी चोला फेंक
चूल्हे के अंगार में , मूँगफल्लियाँ सेंक |
मक्के की रोटी गरम , खाओ गुड़ के संग
फिर देखो कैसी जगे, तन मन मस्त तरंग |
गर्म पराठे कुरकुरे , मेथी के जब खायँ
चटनी लहसुन मिर्च की,भूले बिना बनायँ |
गाजर का हलुवा कहे, ले लो सेहत स्वाद
हँसते रहना साल भर, मुझको करके याद |
सीताफल हँसने लगा , खिले बेर के फूल
सरसों की अँगड़ाइयाँ, जलता देख बबूल |
भाँति भाँति के कंद ने, दिखलाया है रूप
इस मौसम भाती नहीं, किसे सुनहरी धूप |
मौसम उर्जा बाँटता , है जीवन पर्यंत
संचित तन मन में करो,सदा रहो बलवंत |
अरुण कुमार निगम
आदित्य नगर , दुर्ग (छत्तीसगढ़)
बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
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आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा आज मंगलवार को (26-11-2013) "ब्लॉगरों के लिए उपयोगी" ---१४४२ खुद का कुछ भी नहीं में "मयंक का कोना" पर भी होगी!
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सुन्दर प्रस्तुति-
जवाब देंहटाएंआभार आदरणीय
waah waah bahut sundar prastuti
जवाब देंहटाएंहेमंत ऋतू का जीवंत वर्णन,हर दोहा भारत के गांवों की मिटटी की गंध में सरावोर है ,
जवाब देंहटाएंअति सुंदर ,बधाई,
सादर
शकुन्तला को ढूँढता , है मन का दुष्यन्त |...क्या बात है ...सुन्दर गुनुगुने दोहे ....
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