मित्रों। एक ग़ज़ल के साथ...आज से "सृजन मंच ऑनलाइन" पर ग़ज़ल की शुरूआत की जा रही है। सभी योगदानकर्ताओं से अनुरोध है कि अपनी ग़ज़ल और उससे सम्बन्धित जानकारीपरक पोस्ट इस ब्लॉग पर लगाने की कृपा करें।जवानी ढलेगी मगर धीरे-धीरे।करेगा बुढ़ापा असर धीरे-धीरे।।सहारा छड़ी का ही लेना पड़ेगा।झुकेगी सभी की कमर धीरे-धीरे।।आँखों पे चश्मा लगाना पड़ेगा।कमजोर होगी नजर धीरे-धीरे।।नहीं साथ देगा कुटुम और कबीला।कठिन सी लगेगी डगर धीरे-धीरे।।यही फलसफा जिन्दगी का है यारों।कटेगी अकेले उमर धीरे-धीरे।।नहीं “रूप” की धूप हरदम खिलेगी।अँधेरे में होगा सफर धीरे-धीरे।।गज़ल के बारे में गहराई से जानने के लिए ये जानना बहुत ही जरूरी है कि मतला, मक़ता, काफ़िया और रदीफ़, रुकण, ईता दोष आदि क्या होते हैं ? ~ Tips Hindi Mein http://cityjalalabad.blogspot.com/2011/12/what-is-matla-makta-kafiya-radif.html#ixzz2kzz7b15O प्रश्न : मतला क्या होता है ?
उत्तर : ग़ज़ल के प्रारंभिक शे'र को मतला कहते हैं | मतला के दोनों मिसरों में तुक एक जैसी आती है | मतला का अर्थ है उदय | उर्दू ग़ज़ल के नियमानुसार ग़ज़ल में मतला और मक़ता का होना अनिवार्य है वरना ग़ज़ल अधूरी मानी जाती है । लेकिन आज-कल नवागुन्तक ग़ज़लकार मकता के परम्परागत नियम को नहीं मानते है या ऐसा भी हो सकता है कि वो इस नियम की गहराई में जाना नहीं चाहते व इसके बिना ही ग़ज़ल कहते हैं । कुछेक कवि मतला के बगैर भी ग़ज़ल लिखते हैं लेकिन बात नहीं बनती है; क्योंकि गज़ल में मकता हो या न हो, मतला का होना लाज़मी है जैसे गीत में मुखड़ा । आप सभी मेरी इस बात से सहमत होंगे कि यदि किसी गीत में मुखड़ा न हो तो आप खुद ही अनुमान लगा सकते हैं गीत कैसा लगेगा । गायक को भी तो सुर बाँधने के लिए गीत के मुखड़े की भाँति मतला की आवश्यकता पड़ती ही है। ग़ज़ल में दो मतले हों तो दूसरे मतले को 'हुस्नेमतला' कहा जाता है। मत्ले के शेर में दोनों पंक्तियों में काफिया ओर रदीफ़ आते हैं । यहाँ पर एक और बात जिकरयोग है कि मत्ले के शेर से ही ये निर्धारण किया जाता है या ये निर्धारित होता है कि किस मात्रिक-क्रम (बहर) का पूरी ग़ज़ल में पालन किया जायेगा या ग़ज़ल कही जायेगी |
'हुस्नेमतला' : किसी ग़ज़ल में आरंभिक मत्ला आने के बाद यदि और कोई मत्ला आये तो उसे हुस्न-ए-मत्ला कहते हैं ।
मत्ला-ए-सानी :एक से अधिक मत्ला आने पर बाद वाला मत्ला यदि पिछले मत्ले की बात को पुष्ट अथवा और स्पष्ट करता हो तो वह मत्ला-ए-सानी कहलाता है।
प्रश्न : मकता क्या होता है ?
उत्तर : ग़ज़ल के अंतिम शे'र को मकता कहते हैं । मकता का अर्थ है अस्त। उर्दू ग़ज़ल के नियमानुसार ग़ज़ल में मतला और मक़ता का होना अनिवार्य है वरना ग़ज़ल अधूरी मानी जाती है। मकता में कवि का नाम या उपनाम रहता है । नाम या उपनाम से भाव उस शब्द से जिस नाम से उस शायर को जाना जाता है |
जैसे :-पंजाबी के नामवर शायर श्री दियाल सिंह 'प्यासा', यहाँ पर प्यासा मकता कहलायेगा |
एक और उदाहरण : आर.पी.शर्मा 'महर्षि', यहाँ पर 'महर्षि' मकता कहलायेगा |
इसे एक और उदाहरण से समझने का प्रयास करेंगे :- जैसे कि आप सभी जानते हैं कि मेरा नाम विनीत नागपाल है | बहुत से जानने वाले मुझे सिर्फ नागपाल जी के नाम से संबोधन देते हैं | मैंने अपने नाम का इस्तेमाल सिर्फ आपको समझाने के लिए किया है | असल में गज़ल लिखने या कहने वाले ज्यादातर शायर अपने नाम के साथ उपनाम का प्रयोग जरूर-जरूर करते हैं | उदाहरण के तौर पर गौर फरमाएं कि मिर्ज़ा 'ग़ालिब', आज के स्तंभ डॉ. रूप चंद शास्त्री 'मयंक', यहाँ पर 'ग़ालिब' 'मयंक' इन नामवर शायर के उपनाम हैं |
प्रश्न : शे,र किसे कहते हैं ?
उत्तर :दो पंक्तिओं या दो लाइनों या दो मिसरों या पंजाबी में (ਦੋ ਸਤਰਾਂ) के जोड़ को या इसे कुछ इस तरह भी समझ सकते हैं कि किन्ही दो पंक्तिओं को शे,र कहा जाता है | शेर की प्रत्येक पंक्ति को ‘मिसरा’ कहा जाता है। शेर की पहली पंक्ति कोमिसरा-ए-उला कहते हैं और दूसरी पंक्ति को मिसरा-ए-सानी कहते हैं| शेर के दोनों मिसरे निर्धारित मात्रिक-क्रम की दृष्टि से एक से होते हैं । इन्हीं मिसरों को मात्रिक-क्रम के आधार पर ही किसी न किसी बहर से निर्धारित किया जाता है |
प्रश्न : तक्तीअ क्या है या तक्तीअ किस कहते हैं या तक्तीअ क्या होती है ? उत्तर : ग़ज़ल के शेर को जॉंचने के लिये तक्तीअ की जाती है जिसमें शेर की प्रत्येक पंक्ति के अक्षरों को बहर के मात्रिक-क्रम के साथ रखकर देखा जाता है कि पंक्ति मात्रिक-क्रमानुसार शुद्ध है। इसी (तकतीअ पद्धति) से यह भी तय होता है कि कहीं दीर्घ को गिराकर हृस्व के रूप में या हृस्व को उठाकर दीर्घ के रूप में पढ़ने की आवश्यकता है अथवा नहीं। विवादास्पद स्थितियों से बचने के लिये अच्छा यही रहता है कि किसी भी ग़ज़ल को सार्वजनिक रूप से प्रस्तुत करने के पहले तक्तीअ अवश्य कर ली जाये ताकि जब कोई गज़ल के फनकार आपके द्वारा कही गज़ल की परख करें तो उन के मापदंड पर खरी उतरे |http://cityjalalabad.blogspot.in/ से साभार।
जानकारी पूर्ण लेख बहुत कुछ है सीखने के लिये !
जवाब देंहटाएंसुन्दर प्रस्तुति-
जवाब देंहटाएंआभार गुरुवर
बढ़िया प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंअच्छी जानकारी.....
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर है।
जवाब देंहटाएंतफसील से समझाया है गज़ल को लेकिन यार ये मतला को मत्ला और शैर को यार लोग शेर (लाइन )काहे कह रहें हैं लिख रहें हैं ?कई तो गज़ल को भी गजल कह लिख रहे हैं ?एक गज़ल इन पर भी हो जाए।
बहुत ही बढ़िया और सुलझी हुई जानकारी साझा करने हेतु आपका आभार। ऊपर टिप्पणियों में कुछ बातों पर विचार आया।
जवाब देंहटाएं'मतला' न होकर 'मत्ला' ही शुद्ध है। शे'र भी सही है जो 'शेअर' हो सकता है। गज़ल 'ग़ज़ल' होती है। मिसरा भी 'मिस्रा' ही शुद्ध है। दूसरी चीज़ चूँकि यह मंच सीखने-सिखाने के लिए है अतः इस अद्भुत मंच पर सहयोग प्रस्तुत है..--
आँखों पे चश्मा लगाना पड़ेगा।
कमजोर होगी नजर धीरे-धीरे।।-- इसमें दोनों ही मिस्रों में पहली रुक्न में बह्र की चूक हो रही है जिसे बह्र मुतक़ारिब होने के कारण १२२ होना चाहिए किन्तु मिस्रए उला और सानी दोनों में में १-१ मात्रा कम है। जो शायद ऐसे करने पर ठीक हो जाय..
इन आँखों पे चश्मा लगाना पड़ेगा, (अलिफ़ वस्ल के तहत -- इन+आँखों = इनाँखों=१२२)
के कमज़ोर होगी नज़र धीरे-धीरे।
सादर,
वाहिद काशीवासी जी।
जवाब देंहटाएंआपको मंच की जरूरत है।
यदि आप मंच से जुड़ जायेंगे तो बहुत लोगों को आपके ज्ञान का लाभ मिलेगा।
आभार।
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अपना ईमेल यहाँ पर टिप्पणी में लिख दें।
मैं आपको सृजन मंच ऑनलाइन पर आमन्त्रित कर दूँगा।
कुछ आपने सिखाया कुछ वाहिद काशीवासी जी ने ,सृजन मंच की टिप्पणी पढ़ कर भी कुछ न कुछ सीख ही लेते हैं |
जवाब देंहटाएंबहुत धन्यवाद ,
सादर ,