ब्रज की भूमि भई है निहाल |
सुर गन्धर्व अप्सरा गावें
नाचें दे दे ताल |
जसुमति द्वारे बजे बधायो,
ढफ ढफली खडताल |
पुरजन परिजन हर्ष मनावें
जनम लियो नंदलाल |
आशिष देंय विष्णु शिव्
ब्रह्मा, मुसुकावैं गोपाल |
बाजहिं ढोल मृदंग मंजीरा
नाचहिं ब्रज के बाल |
गोप गोपिका करें आरती, झूमि
बजावैं थाल |
आनंद-कन्द प्रकट भये ब्रज
में विरज भये ब्रज-ग्वाल |
सुर दुर्लभ छवि निरखे
लखि-छकि श्याम’ हू भये निहाल ||
कन्हैया उझकि उझकि निरखे |
स्वर्ण खचित पलना चित-चितवत
केहि विधि प्रिय दरसै |
जहँ पौढ़ी वृषभानु लली,
प्रभु दरसन कौं तरसै |
पलक पांवड़े मुंदे सखी के,
नैन कमल थरकैं |
कलिका सम्पुट बंध्यो भ्रमर
ज्यों, फर फर फर फरके |
तीन लोक दरसन कौं तरसें, सो दरसन तरसै |
ये तो नैना बंद किये हैं, कान्हा बैननि
परखे |
अचरज एक भयो ताही छिन, बरसानौ सरसे |
खोली दिए दृग भानुलली,मिलि
नैन, नैन हरषे|
दृष्टिहीन माया, लखि
दृष्टा, दृष्टि खोलि निरखे|
बिन दृष्टा के दर्श श्याम,
कब जगत दीठ बरसै ||
बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
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आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा आज रविवार (17-11-2013) को "लख बधाईयाँ" (चर्चा मंचःअंक-1432) पर भी है!
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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गुरू नानक जयन्ती, कार्तिक पूर्णिमा (गंगास्नान) की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
नमस्कार गुप्तजी , सूर के दोहे याद आ गये |आपकी रचना अद्वतीय है ,बधाई
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