आस्था ---निर्मला सिंह गौर की कविता
अर्चना की आरती में दीप की लौ हो अस्थिर
तो भला व्रत की सफलता पर करें संदेह क्यों कर |
ये हवाएं भी हैं शामिल
मन्दिरों के प्रांगणों में
है शहर का शोर भी तो
ध्यान के गुमसुम क्षणों में
शीर्ष से जो गिर गया
श्रद्धा सुमन हो कर अस्थिर
तो भला आसक्ति की निष्ठा पर हो संदेह क्यों कर |
मन विहग गतिशील चंचल
भावनाओं की है हलचल
है अधर मुस्कान शोभित
रिस रहा है नयन से जल
पार्श्व से जो आरहे हैं
आर्तनादों के करुण स्वर
तो ऋचाओं की महत्ता पर करें संदेह क्यों कर |
पी रहा जन जन निरंतर
विवशताओं का हलाहल
है कहीं 'कर्तव्य'बोझिल
तो कहीं है 'मोह' दलदल
यदि प्रदूषित जल भरा हो
पात्र में गंगा जली के
तो भला गंगा की पावनता पर हो संदेह क्यों कर |
बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
जवाब देंहटाएं--
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा आज सोमवार (25-11-2013) को "उपेक्षा का दंश" (चर्चा मंचःअंक-1441) पर भी है!
--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सुन्दर गीत ....
जवाब देंहटाएंश्रद्धा सुमन हो कर अस्थिर ....= होकर के