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सोमवार, 9 सितंबर 2013

रुबाई---डा श्याम गुप्त .....



          उर्दू व फारसी का छंद विशेष रुबाई में चार, समवृत्त चरण होते हैं। इसके पहले, दूसरे और चौथे पद में क़ाफ़िया होता है, तीसरा मिसरा भिन्न तुकांत होता है | कभी कभी चारों ही सानुप्रास होते हैं|  अर्थात यदि तीसरी पंक्ति का भी तुकांत मिलता है तो कोई त्रुटि नहीं मानी जाती है अर्थात चारों एक ही तुकांत वाली भी हो सकती हैं| पहला-तीसरा व दूसरा -चौथा मिसरे भी समतुकांत हो सकते हैं| कसीदा अथवा गज़ल के प्रारम्भिक चार पाद भी रुबाई हो सकते हैं | रुबाई में एक ही विषय व भाव होता है ओर कथ्य चौथे मिसरे में ही मुकम्मिल व स्पष्ट होता है | 
   
     रुबाई एक मुक्तक है और अपने आप में पूर्ण भी | रुबाई की चारों पंक्तियां एक सम्पूर्ण कविता होती है फ़ारसी में इसे 'तराना' भी कहते हैं, रुबाइयों में प्रायः सूक्ति या उक्ति-वैचित्र्य होता है जिनमें एक ही विचार प्रकट किया गया हो तथा हर प्रकार के विचार लाए जा सकते हैं। पर प्रायः इसमें लाए जाने वाले विचार दार्शनिक होते हैं।..कुछ उदाहरण..प्रस्तुत हैं....



         इक नई नज़्म कह रहा हूँ मैं

          अपने ज़ज्वात की हसीं तहरीर |

            किस मौहब्बत से तक रही है मुझे,

            दूर रक्खी हुई तेरी तस्वीर || “       .... निसार अख्तर


नभ मण्डल गूंजता है तेरे जस से
गुलशन खिलते हैं गम के खारो खस से
संसार में जिन्दगी लुटाता हुआ रूप
अमृत बरसा रहा है जोबन रस से।........    
रूप


औरों के लिए जो दिल सदा लेते हैं
इंसान फूलों को सर चढ़ा लेते हैं
और जो झुके रहते हैं बाईज़्ज़ों नियाज़
मर्दम उन्हें आँखों पै बिठा लेते हैं ..          .नियाज


"जितनी दिल की गहराई हो उतना गहरा है प्याला,
जितनी मन की मादकता हो, उतनी मादक है हाला,
जितनी उर की भावुकता हो, उतना सुन्दर साकी है,
जितना हो जो रसिक, उसे है, उतनी रसमय मधुशाला।" ------हरिवंश राय बच्चन


ये चैत की चाँदनी में आना तेरा
अंग अंग निखरा हुआ, लहराया हुआ
रस और सुगंध से जवानी बोझल
एक बाग है बौर आए हुए आमों का    ---रूप

आंगन में सुहागिनी नहा के बैठी
रामायण जानुओं पे रक्खी है खुली
जाडे क़ी सुहानी धूप खुले गेसू की
परछांई चमकते सफहे पर पडती हुई ----रूप 



वासंती ऋतु के जाते ही मुरझा जाते सभी गुलाब,
हो जाती तत्काल बंद फिर नव यौवन की खुली किताब।
कल तक जो बुलबुल शाखों पर गाती गीत मचाती धूम,
जाने कौन, कहाँ से आई, किधर उड़ी किसको मालूम.    --- उमर खैयाम ( स्नेहांचल  ब्लॉग से )



हरे - भरे वृक्षों के नीचे दो टुकड़े रोटी के साथ,
मिला एक मदिरा का सागर, कविता पुस्तक मेरे हाथ.
निकट बैठ तुम गीत सुनातीं छेड़े मन वीणा के तार,
यों समझो इस वीराने में मुझको मिला स्वर्ग का द्वार.---उमरखैयाम (श्री हेमंत अग्रवाल द्वारा अनूदित )


-डा श्याम गुप्त की रुबाइयां ------

दुखों को हराने का यही फलसफा है यारो
कि गाहे बगाहे दामन में सजाये रहिये
दर्द जीतने यही मन्त्र है सीधा सा,
कि दर्दे इश्क सीने में बसाये रहिये |  

वो आये हमारे दर पे इनायत हुई ज़नाब
आये बाद बरसों आये तो जनाब
इस मौसमे बेहाल में बेहाल आप हैं-
मुश्किल से मयस्सर हुए दीदार ये ज़नाब |     


दर्दे-दिल को जो जीपाये
जख्मे दिल को जो सी पाए
दर्दे-ज़माँ ही ख़्वाब है जिसका-
उस दिल में ही खुदा समाये |   

दिखा के हमें रोशनी का मंज़र
कितने अंधेरों की राह दिखा दी तुमने
डूब ही जायेंगे अन्धेरे के समंदर में
हाथ को हाथ जो न दिया तुमने |  

5 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुन्दर जानकारी परक पोस्ट।
    आपका आभार डॉ.साहिब।
    --
    सुप्रभात...। गणेश चतुर्थी की हार्दिक शुभकामनाएँ..।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. धन्यवाद शास्त्री जी --आपको भी गणेश चतुर्थी की हार्दिक शुभकामनाएँ..

      हटाएं
  2. सुन्दर प्रस्तुति...!
    --
    आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टि का लिंक आज मंगलवार (10-09-2013) को मंगलवारीय चर्चा 1364 --गणेशचतुर्थी पर विशेषमें "मयंक का कोना" पर भी है!
    सादर...!
    आप सबको गणेशोत्सव की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

    जवाब देंहटाएं

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