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बुधवार, 11 सितंबर 2013

गुरु वन्दना (रुबाइयाँ )

"रुबाइयाँ "की रूप देने की कोशिश की। अगर आपको लगे कुछ कमी रह गयी है ,कृपया टिप्पणी के रूप में बताएं, आभारी रहूँगा।



मन ,वुद्धि ,विवेक का स्रष्टा हो
ज्ञान विज्ञानं के तुम विधाता हो
ब्रह्मा  रूपेण हो सिरजनहार तुम
शतकोटी प्रणाम तुम्हे , मेरे ज्ञान-गुरु हो।

 २


संसार सागर के खिवैया तुम हो
मेरी डूबती नाव के तुम नाविक हो
कभी इसपार तुम, तो कभी उसपार
विष्णु रूपेण तुम मेरे गुरु पालक  हो। 




अहँकार ,घमंड ,घृणा ,द्वेष ,ईर्षा
काम, क्रोध,लोभ ,मद-मोह ,तृष्णा
मेरे सभी अवगुणों के संहारक हो तुम
हो सत्वगुण रक्षक मेरे गुरु शिवरूपा।

  ४ 


शतकोटि प्रणाम तुम्हे ,तुम ब्रह्मा हो
शतकोटि प्रणाम तुम्हे, तुम विष्णु हो
शतकोटि प्रणाम तुम्हे, हे भोले शंकर!
शतसहस्रकोटि प्रणाम,गुरु तुम परब्रह्म हो। 


कालीपद "प्रसाद "

©   सर्वाधिकार सुरक्षित


3 टिप्‍पणियां:

  1. ---लय व गेयता रुबाई का मूल भाव है ....इसकी कमी है ...कथ्य गद्य की भांति हैं .

    मेरे डूबते नांव का = मेरी डूबती नाव के ...

    का स्रष्टा = के सृष्टा

    का संहारक = के संहारक

    शतकोटी = शतकोटि

    जवाब देंहटाएं
  2. आदरणीय श्याम गुप्ता जी ,१.गेयता का आभाव तो है क्योकि मैं गायक नहीं हूँ .कविता के लय में है .२. यह स्रष्टा ही है ,सृष्टि को रचने वाला स्रष्टा है ,गुरु स्रष्टा है .३.मात्रायों की गलती सुधार देता हूँ .आपका असीम आभार

    जवाब देंहटाएं

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