जब गाँव का मुसाफिर, आया नये शहर में।
गुदड़ी में लाल-ओ-गौहर, लाया नये शहर में।
इज्जत का था दुपट्टा, आदर की थी चदरिया,
जिल्लत का दाग़ उसने, पाया नये शहर में।
चलती यहाँ फरेबी, हत्यायें और डकैती,
बस खौफ का ही आलम, छाया नये शहर में।
औरत के हुस्न थी, चारों तरफ नुमायस,
शैतानियत का देखा, साया नये शहर में।
इंसानियत यहाँ तो, देखी जलेबियों सी,
मिष्ठान झूठ का भी, खाया नये शहर में।
इससे हजार दर्जे, बेहतर था गाँव उसका,
फिर “रूप” याद उसको, आया नये शहर में।
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रविवार, 29 दिसंबर 2013
"जिल्लत का दाग़" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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बहुत सुंदर !
जवाब देंहटाएंसुन्दर रचना !!
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर रचना परिवेश प्रधान
जवाब देंहटाएंजब गाँव का मुसाफिर, आया नये शहर में।
गुदड़ी में लाल-ओ-गौहर, लाया नये शहर में।
इज्जत का था दुपट्टा, आदर की थी चदरिया,
जिल्लत का दाग़ उसने, पाया नये शहर में।
चलती यहाँ फरेबी, हत्यायें और डकैती,
बस खौफ का ही आलम, छाया नये शहर में।
औरत के हुस्न थी, चारों तरफ नुमायस,
शैतानियत का देखा, साया नये शहर में।
इंसानियत यहाँ तो, देखी जलेबियों सी,
मिष्ठान झूठ का भी, खाया नये शहर में।
इससे हजार दर्जे, बेहतर था गाँव उसका,
फिर “रूप” याद उसको, आया नये शहर में।
बहुत खूब .. नए शहर के बदलते अंदाज़ को बाखूबी लिखा है ...
जवाब देंहटाएंनमस्कार शास्त्री जी ...
एकदम सच बयां करती रचना...बधाई...
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