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मंगलवार, 25 फ़रवरी 2014

"ग़ज़ल-अच्छा नहीं लगता" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री मयंक')

खुशी में दीप जलवाना, उन्हें अच्छा नहीं लगता।
गले लोगों को मिलवाना, उन्हें अच्छा नहीं लगता।। 

समाहित कर लिए कुछ गुण, जिन्होंने उल्लुओं के हैं, 
गगन पर सूर्य का आना, उन्हें अच्छा नहीं लगता। 

जिन्हें है ताड़ का, काटों भरा ही रूप हो भाया,
उन्हें बरगद सा बन जाना, कभी अच्छा नहीं लगता। 

बिखेरा है करीने से, सभी माला के मनकों को, 
पिरोना एकता के सूत्र में, अच्छा नहीं लगता। 

जिन्हें रांगे की चकमक ने लुभाया जिन्दगीभर है,  
दमकता सा खरा कुन्दन, उन्हें अच्छा नही लगता। 

प्रशंसा खुद की करना और चमचों से घिरा रहना, 
प्रभू की वन्दना गाना, उन्हें अच्छा नही लगता। 

सुनाते ग़जल औरों की, वो सीना तान महफिल में,
हमारा गुनगुनाना भी,उन्हें अच्छा नहीं लगता।

हुए सब पात हैं पीले, लगा है "रूप भी ढलने,
दिल-ए-नादां को समझाना, उन्हें अच्छा नहीं लगता।


5 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत बढ़िया प्रस्तुति-
    आभार गुरुदेव-

    जवाब देंहटाएं
  2. ---सुन्दर व भावपूर्ण शानदार ग़ज़ल .....

    --- यद्यपि ..तीन शेरों में काफिया भिन्नता है ..जिसे सही किया जा सकता है ...निम्नानुसार ...(परन्तु वस्तुत: तो इस काफिया भिन्नता से भी यहाँ इस ग़ज़ल के भाव, लय, गति, सुर व प्रवाह, भाव-सम्प्रेषण एवं श्रेष्ठता, सौन्दर्य पर कोइ अंतर नहीं पड रहा ...इसीलिये तकनीक को मैं सिर्फ २५% ही नंबर देता हूँ शेष को ७५%)...देखें...


    पिरोना एकता के सूत्र में, = एक्य में पिरोया जाना

    दमकता सा खरा कुन्दन, = खरा कुंदन सा होजाना

    हमारा गुनगुनाना भी = हमारा गीत भी गाना ..

    जवाब देंहटाएं

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