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रविवार, 2 नवंबर 2014

"भ्रष्ट आचरण में, आचार ढूँढता हूँ" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')

परिवार ढूँढता हूँ और प्यार ढूँढता हूँ।
गुल-बुलबुलों का सुन्दर संसार ढूँढता हूँ।।

कल नींद में जो देखा, मैंने हसीन सपना,
जीवन में वो महकता घर-बार ढूँढता हूँ।

स्वाधीनता मिली तो, आशाएँ भी बढ़ी थीं,
मैं भ्रष्ट आचरण में, आचार ढूँढता हूँ।

हैं देशभक्त सारे, मुहताज रोटियों को,
चोरों की अंजुमन में, सरकार ढूँढता हूँ।

कानून के दरों पर, इंसाफ बिक रहा है,
काजल की कोठरी में, दरबार ढूँढता हूँ।

दुनिया है बेदिलों की, ज़रदार पल रहे हैं,
बस्ती में बुज़दिलों की, दिलदार ढूँढता हूँ।

इंसानियत तो जलकर अब खाक हो गई है,
मैं राख में दहकता अंगार ढूँढता हूँ।

10 टिप्‍पणियां:

  1. वाह बहुत सशक्त रचना .....
    इंसानियत तो जलकर अब खाक हो गई है,
    मैं राख में दहकता अंगार ढूँढता हूँ।

    जवाब देंहटाएं
  2. 'मैं भ्रष्ट आचरण में, आचार ढूँढता हूँ '
    हाँ हाँ ,क्यों नहीं - काजल की कोठरी में रोशनी नहीं जाती क्या !

    जवाब देंहटाएं
  3. इंसानियत तो जलकर अब खाक हो गई है,
    मैं राख में दहकता अंगार ढूँढता हूँ।
    ....दुस्साहसी राख से भी निकल आते हैं बस तलाशने और तराशने जो होता है ..
    बहुत बढ़िया

    जवाब देंहटाएं
  4. सुन्दर ....परिवार तो स्वतः ही मिलता है आपका बस कहाँ है...

    जवाब देंहटाएं

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