भटक रहा है मारा-मारा।
गधा हो गया है बे-चारा।।
जनसेवक ने लील लिया है,
बेचारों का भोजन सारा।
चरागाह अब नहीं बचे हैं,
पाये कहाँ से अब वो चारा।
हुई घिनौनी आज सियासत,
किस्मत में केवल है नारा।
कंकरीट के जंगल हैं अब,
हरी घास ने किया किनारा।
कूड़ा-करकट मैला खाता,
भूख हो गयी है आवारा।
भूसी में से तेल निकलता,
कठिन हो गया आज गुज़ारा।
"रूप" हमारा चाहे जो हो,
किन्तु गधे सा काम हमारा।
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शनिवार, 22 नवंबर 2014
"ग़ज़ल-गधे सा काम हमारा" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
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गजब सर गजब..... मजेदार और सुन्दर कटाक्ष !!!!
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