काव्य क्या है....
सभी के अनुभव व विचार लगभग समान ही होते है | ज्ञान भी समान हो सकता है परन्तु विचारों की गंभीरता, सूक्ष्मता, निरीक्षण की गहनता, चिंतन, व अभिव्यंजना सभी की पृथक पृथक होती है | इसीलिये मानव समूह में साहित्यकार, विद्वान्, विचारक, चिन्तक, ज्ञानी, सामान्य आदि वर्ग होते हैं| यथा ...
सर्व ज्ञान संपन्न विविधि नर,
सभी एक से कब होते हैं |
अनुभव श्रृद्धा तप व भावना,
होते सबके भिन्न भिन्न हैं |
भरे जलाशय ऊपर समतल,
होते ऊंचे -नीचे तल में || ---शूर्पणखा काव्य-उपन्यास से
अनुभव श्रृद्धा तप व भावना,
होते सबके भिन्न भिन्न हैं |
भरे जलाशय ऊपर समतल,
होते ऊंचे -नीचे तल में || ---शूर्पणखा काव्य-उपन्यास से
जब कोई घटना , तथ्य या कथ्य, स्थिति, विषय-वस्तु अथवा भाव ..मन को गहराई तक स्पर्श करते हैं एवं अंतर्मन को मंथित करते हैं तो भावुक मन उसे अपने काम से काम के भाव में यूंही छोड़कर आगे नहीं बढ़ जाता | वह प्रतिक्रया स्वरुप उसके समाधान या समाधान पाने के प्रयत्न में अन्य हृदयों से, जन सामान्य से समन्वय या समर्थन की इच्छा में अपने विचार प्रस्तुत करना चाहता है | साहित्य लेखन, काव्य, गायन, वादन , चित्रकला इसी इच्छा के फल हैं| भावुक मन में जब भाव ..आत्म-तत्व को मंथित करते हैं तो कोमल भावनाएं गेय रूप में निसृत होती हैं और कविता बन जाती हैं|
सामान्य व्यक्ति की भाषा विवरणात्मक होती है तो कवि की भाषा में विशिष्टता व भावों व शब्दों की संश्लिष्टता होती है सामान्य भाषा में जो तथ्य मान्य नहीं हो सकते वे काव्य की भाषा में भावालंकार रूप में सौन्दर्ययुक्त व मान्य माने जाते हैं | कविवर रविंद्रनाथ टेगोर का कथन है कि...
‘हृदयवेग में जिसकी सीमा नहीं मिलती उसको व्यक्त करने के लिए सीमाबद्ध भाषा का घेरा तोड देना पडता है, यह घेरा तोड देना ही कवित्व है।‘
सामान्य भाषा में एक ही निश्चित अर्थात्मक तथ्य होते हैं, यथा.... मनुष्य चलता है, पेड़ों की डालियाँ हवा में हिलती हैं, चिडिया उड़ती है, घोड़ा दौडता है आदि.....वहीं कविता में पेड.. डालियाँ रूपी गर्दन हिलाते हैं, घोड़ा हवा से बातें करता है अर्थात काव्य में जड़ तत्वों की भाव ग्राहयता के साथ सौन्दर्य भी है। सामान्य भाषा को विशिष्ट भाव-शब्द देने के कारण उत्पन्न होने वाली सौन्दर्यमय, भाव-सम्प्रेषणात्मकता युक्त, सर्जनात्मक भाषा... कविता व साहित्य की भाषा है। कविता में भाषा की सर्जनात्मकता, भाषा व कथ्य के निश्चित अर्थ के विपरीत शब्द-भावों का लाक्षणिक प्रयोग करके भिन्न सौन्दर्यमय अर्थवत्तात्मकता उत्पन्न की जाती है। यही काव्य है।
मानव, कविता व गीत एवं सामाजिक सरोकार ----सृष्टि की सबसे सुन्दर है कृति है मानव, और मानव की कृतियों में सबसे सुन्दर है- कविता:,.... गीत-- काव्य की सुन्दरतम प्रस्तुति है । गीत होते ही हैं मानव मन के सुख-दुख व अन्तर्द्वन्द्वों के अनुबन्धों की गाथा । जहां भावुक मन गीत सृष्टा हो तो वे मानव ह्रदय, जीवन, जगत, की सुखानुभूति, वेदना, संवेदना के द्वन्द्वों व अन्तर्संबंधों की संगीतमय यात्रा हो जाते हैं । ये गीत वस्तुतः मानव ह्रदय की पूंजी होते है--स्वान्त सुखायः......यदि गीतों में जीवन के राग-विराग, कर्तव्य बन्धनों की अनिवार्यता की स्वीकृति के साथ-साथ मुक्त-गगन में उडान की छटपटाहट की व्यष्टि चेतना के साथ जीवन -जगत की समष्टिगतता भी निहित है और निहित है समाज व विश्वकल्याण की भावना तो वे निश्चय ही समाधान युक्त होकर कालजयी हो जाते हैं| सामाजिक सरोकार के बिना कोई भी कविता व साहित्य अधूरा ही है।
शब्द की शक्ति अनंत व रहस्यात्मक भी
है। चाहे गद्य हो या पद्य -किसी भी शब्द के विभिन्न रूप व पर्यायवाची शब्दों के
कभी समान अर्थ नहीं होते। (जैसा सामान्यतः समझा जाता है। ) यथा--
" प्रभु ने ये संसार कैसा सजाया."---एक कविता की पंक्ति है । --यहाँ सजाया =रचाया =बनाया कुछ भी लिखा जा सकता है । मात्रा, तुक व लय एवं सामान्य अर्थ मैं कोई अन्तर नहीं, कवितांश के पाठ मैं भी कोई अन्तर नहीं पढता । परन्तु काव्य व कथन की गूढता तथा अर्थवत्तात्मक दृष्टि से, भाव संप्रेषण दृष्टि से देखें तो --
1.--- बनाया = भौतिक बस्तु के कृतित्व का बोध देता है, स्वयं अपने ही हाथों से कृतित्व का बोध .. कठोर वर्ण है।
२.-- रचाया = समस्त सृजन का बोध देता है, विचार से लेकर कृतित्व तक, आवश्यक नहीं कि कृतिकार ने स्वयं ही बनाया हो। किसी अन्य को बोध देकर भी बनवाया हो सकता है।
३.-- सजाया = भौतिक संरचना की बजाय भाव-सरंचना का भी बोध देता है। बनाने (या स्वयं न बनाने -रचाने ) की बजाय या साथ-साथ, आगे नीति, नियम, व्यवहार, आचरण, साज-सज्जा आदि के साथ बनाने, रचाने, सजाने की कृति व शब्दों की सम्पूर्णता-विशिष्टता का बोध देता है।
प्रभु के लिए यद्यपि तीनों का प्रयोग उचित है । परन्तु ब्रह्मा, देवताओं, मानव के संसार के सन्दर्भ मैं बनाया अधिक उचित होगा। सिर्फ़ ब्रह्मा के लिए रचाया भी। अन्य संसारी कृतियों के लिए विशिष्ट सन्दर्भ मैं तीनों शब्द यथा स्थान प्रयोग होने चाहिए । उदाहरित कविता मैं --सजाया-- शब्द उचित प्रतीत होता है।
एक अन्य शब्द को लें --क्षण एवं पल --दौनों समानार्थी हैं । परन्तु -- क्षण = बस्तु परक, भौतिक, वास्तविक समय प्रदर्शक तथा कठोर वर्ण है और .. पल = भावपरक, स्वप्निल व सौम्य-कोमल वर्ण है । इसीलिये प्रायः पल-छिन शब्द प्रयोग किया जाता है, सुंदर, भावुक स्वप्निल समय काल-खंड के लिए।
" प्रभु ने ये संसार कैसा सजाया."---एक कविता की पंक्ति है । --यहाँ सजाया =रचाया =बनाया कुछ भी लिखा जा सकता है । मात्रा, तुक व लय एवं सामान्य अर्थ मैं कोई अन्तर नहीं, कवितांश के पाठ मैं भी कोई अन्तर नहीं पढता । परन्तु काव्य व कथन की गूढता तथा अर्थवत्तात्मक दृष्टि से, भाव संप्रेषण दृष्टि से देखें तो --
1.--- बनाया = भौतिक बस्तु के कृतित्व का बोध देता है, स्वयं अपने ही हाथों से कृतित्व का बोध .. कठोर वर्ण है।
२.-- रचाया = समस्त सृजन का बोध देता है, विचार से लेकर कृतित्व तक, आवश्यक नहीं कि कृतिकार ने स्वयं ही बनाया हो। किसी अन्य को बोध देकर भी बनवाया हो सकता है।
३.-- सजाया = भौतिक संरचना की बजाय भाव-सरंचना का भी बोध देता है। बनाने (या स्वयं न बनाने -रचाने ) की बजाय या साथ-साथ, आगे नीति, नियम, व्यवहार, आचरण, साज-सज्जा आदि के साथ बनाने, रचाने, सजाने की कृति व शब्दों की सम्पूर्णता-विशिष्टता का बोध देता है।
प्रभु के लिए यद्यपि तीनों का प्रयोग उचित है । परन्तु ब्रह्मा, देवताओं, मानव के संसार के सन्दर्भ मैं बनाया अधिक उचित होगा। सिर्फ़ ब्रह्मा के लिए रचाया भी। अन्य संसारी कृतियों के लिए विशिष्ट सन्दर्भ मैं तीनों शब्द यथा स्थान प्रयोग होने चाहिए । उदाहरित कविता मैं --सजाया-- शब्द उचित प्रतीत होता है।
एक अन्य शब्द को लें --क्षण एवं पल --दौनों समानार्थी हैं । परन्तु -- क्षण = बस्तु परक, भौतिक, वास्तविक समय प्रदर्शक तथा कठोर वर्ण है और .. पल = भावपरक, स्वप्निल व सौम्य-कोमल वर्ण है । इसीलिये प्रायः पल-छिन शब्द प्रयोग किया जाता है, सुंदर, भावुक स्वप्निल समय काल-खंड के लिए।
काव्य के उद्देश्य
साहित्य = सा + हिताय + य = अर्थात जो समाज, संस्कृति व
मानव के व्यापक हित में हो वह ही साहित्य है। अतः साहित्य के मूल भाव-उद्देश्य होने चाहिये ---
(1) सम्पूर्ण ज्ञान का अनुशासन (ज्ञान का कोष व ज्ञान की प्रतिष्ठापना ),शास्त्रीय पद्धति से जीवन -जगत का बोध .....
(1) सम्पूर्ण ज्ञान का अनुशासन (ज्ञान का कोष व ज्ञान की प्रतिष्ठापना ),शास्त्रीय पद्धति से जीवन -जगत का बोध .....
(२) जन रंजन के साथ स्वान्त सुखाय ....व्यक्तित्व व समष्टि निर्माण की प्रेरणा से सुखानंद, काव्यानंद द्वारा ब्रह्मानंद सुख ।
(३) काव्य सुरसिकता द्वारा जन-जन युग प्रबोधन, जीवन मूल्यों का संदेश व व्यक्ति व समष्टि निर्माण की प्रेरणा ।
इनसे भिन्न ---ज्ञान का लेखन तो -समाचार बाचन,या तुकबंदी ही रह जायगा । अतः काव्य-लेखन
के मुख उद्देश्य निम्न होते हैं ...
१.स्वान्त सुखाय...जो ह्रदय से
निकली कविता होती है, प्रेम गीत, भजन आदि परन्तु वही समष्टिगत होने पर प्रांत सुखाय व जन जन
सुखाय भी हो जाती है |
२.जन रंजन के साथ स्वान्त सुखाय ....व्यक्तित्व व समष्टि निर्माण की प्रेरणा से रचित काव्य
सुखानंद, काव्यानंद द्वारा ब्रह्मानंद सुख ...ह्रदय
के उद्गारों का बुद्धि व अनुभव के तालमेल से उत्पन्न हुई कविता | खंड-काव्य,
महाकाव्य, देशभक्ति के काव्य, प्रसिद्द
व्यक्तित्वों धार्मिक-एतिहासिक चरित्रों, दार्शनिक व धार्मिक
तत्वों व ग्रंथों की व्याख्या हेतु रचित काव्य...
३.सामायिक काव्य ...जिसमें कवि अपने देश-धर्म-काल के नागरिक
दायित्व को पूर्ण करता है..यथा मनोरंजन पूर्ण काव्य, सामयिक शौर्य गाथाएँ, राजनीति आदि पर आधारित काव्य...
आज सूचना युग में सारा ज्ञान कंप्यूटर से मिलजाने के कारण इलेक्ट्रोनिक मीडिया ,दूर दर्शन आदि से सुखानंद प्राप्ति व उपभोक्तावादी संस्कृति के प्रभाव से उपरोक्त तीनों प्रयोजन निष्प्रभावी होजाने से कविता की समाज में निष्प्रभाविता बढ़ी है।
प्रायः यह कहा जाने लगा है कि कवि को भी बाज़ार, प्रचार आदि के आधुनिक हथकंडे अपनाने होंगे । परन्तु प्रश्न है कि यदि कवि यह सब करने लगे तो वह ह्रदय से उदभूत कविता कैसे रचेगा? वह भी व्यापारी नहीं बन जायगा? क्या स्वयं समाज का कविता,कवि व समाज के व्यापक हित के प्रति कोई कर्तव्य नहीं है ? ताली दौनों हाथों से बज़ती है।
प्रायः यह कहा जाने लगा है कि कवि को भी बाज़ार, प्रचार आदि के आधुनिक हथकंडे अपनाने होंगे । परन्तु प्रश्न है कि यदि कवि यह सब करने लगे तो वह ह्रदय से उदभूत कविता कैसे रचेगा? वह भी व्यापारी नहीं बन जायगा? क्या स्वयं समाज का कविता,कवि व समाज के व्यापक हित के प्रति कोई कर्तव्य नहीं है ? ताली दौनों हाथों से बज़ती है।
काव्य -- मानवीय सृजन में सर्वाधिक महत्वपूर्ण –
काव्य मानव-मन की संवेदनाओं का बौद्धिक सम्प्रेषण है--मानवीय सृजन में सर्वाधिक कठिन व रहस्यपूर्ण ; क्योंकि काव्य अंतःकरण के अभी अवयवों ---चित्त (स्मृति व धारणा ), मन ( संकल्प ), बुद्धि ( मूल्यांकन ), अहं ( आत्मबोध ) व स्वत्व (अनुभव व भाव ) आदि सभी के सामंजस्य से उत्पन्न होता है | तभी वह युगांतरकारी, युगसत्य, जन सम्प्रेषणीय, विराट-सत्याग्रही, बौद्धिक विकासकारी व सामाजिक चेतना का पुनुरुद्धारक हो पाता है |
काव्य--- इतिहास, दर्शन या विज्ञान के भांति कोरा कटु यथार्थ न होकर मूलरूप से वास्तविक व्यवहार जगत के अनुसार सत्यं, शिवं, सुन्दरं होता है, तभी उसका कथ्य युगानुरूप के साथ सार्वकालिक सत्य भी होता है| साहित्यकार का दायित्व- नवीन युग-बोध को सही दिशा देना होता है तभी उसकी रचनाएँ कालजयी हो पाती हैं| आधुनिक व सामयिक साहित्य रचना के साथ-साथ ही सनातन व एतिहासिक विषयों पर पुनः-रचनाओं द्वारा समाज के दर्पण पर जमी धूलि को समय-समय साफ़ करते रहने से समयानुकूल प्रतिबिम्ब नए-नए भाव-रूपों में दृश्यमान होते हैं एवं प्रगति की भूमिका बनते हैं|
साहित्य व काव्य को किसी भाषा , शाखा या गुट-विशेष की रचनाधर्मिता न होकर काव्य की समस्त शक्तियों, भावों, शब्दों व सम्भावनाओं का
उपयोग करना होता है| प्रवाह व लय काव्य की विशेषताएं हैं
जो विषय, भाव व सम्प्रेषण-क्षमता एवं समाज की सार्वकालीन आवश्यकतानुसार प्रत्येक काव्य-विधा में होनी चाहिए चाहे व विधा छंदोबद्ध काव्य हो
या मुक्त-छंद काव्य | अतः गीत- अगीत, तुकांत-अतुकांत, छंद आदि कोई विवाद का विषय नहीं होना चाहिए |
काव्य ---सत्यं शिवं सुन्दरम ---
काव्य ---सौंदर्य-प्रधान हो या सत्य-प्रधान ...इस पर पूर्व व पश्चिम के विद्वानों में मतभेद हो सकता है | आचार्यों के अपने अपने मतभेद व तर्क हैं| सृष्टि की प्रत्येक वस्तु व भाव, कर्म की भाँति...काव्य-कविता व समस्त साहित्य को भी " सत्यं शिवं सुन्दरम " होना चाहिए | साहित्य का कार्य सिर्फ मनोरंजन न होकर जन-रंजन के रूप में समाज को एक दिशा देना होता है और सत्य के बिना कोई दिशा..दिशा नहीं हो सकती | सिर्फ कलापक्ष को सजाने हेतु एतिहासिक, भौगोलिक व तथ्यात्मक सत्य को अनदेखा नहीं करना चाहिए |
स्वतः स्फूर्त रचना,स्वांत-सुखाय व सर्वग्राही --- होती है | रचनाकार को वह सद्य-प्रसूता जननी की भांति सृजन की सुखानुभूति देती है | उसके अंतर के पुरुष-तत्व के अहं की तुष्टि करती है | आदि-सृष्टि की रचना भी तो उस परम-तत्व, आदि-सृष्टा की स्वतः स्फूर्त व स्वांत-सुखाय, सृजन-प्रवृत्ति की सुखानुभूति एवं 'एकोहं बहुस्याम ' के ईषत-अहं की तुष्टि ही है | इसी से सृजन -धर्मिता ..असत से सत की ओर प्रस्फुटित होती है | जब सुधीजन उस रचना को अपने-अपने दृष्टिकोण से परखते हैं तभी वह रचना सर्वांत-सुखाय व सर्वग्राही भी हो पाती है |
ब्लॉग जगत में
स्वतंत्र अभिव्यक्ति हेतु मुफ्त लेखन की सुविधा होने से अनेकानेक ब्लॉग आ रहे हैं एवं नए-नए व युवा कवि अपने आप को प्रस्तुत कर रहे हैं ....हिन्दी व
भाषा एवं समाज के लिए गौरव और प्रगति-प्रवाह की
बात है ......परन्तु इसके साथ ही यह भी प्रदर्शित होरहा है कि .....कविता में लय, गति, लिंगभेद, विषय भाव का गठन, तार्किकता, देश-काल, एतिहासिक तथ्यों आदि की अनदेखी की जारही है | जिसके जो मन में आरहा है तुकबंदी किये जारहा है | जो काव्य-कला में गिरावट का कारण बन सकता
है|
यद्यपि कविता ह्रदय की भावाव्यक्ति है उसे सिखाया नहीं जा सकता ..परन्तु भाषा एवं व्याकरण व सम्बंधित विषय का उचित ज्ञान व अनुभव काव्य-कला को सम्पूर्णता प्रदान करता है | शास्त्रीय-छांदस कविता में सभी छंदों के विशिष्ट नियम होते हैं अतः वह तो काफी बाद की व अनुभव -ज्ञान की बात है परन्तु प्रत्येक नव व युवा कवि को कविता के बारे में कुछ सामान्य ज्ञान की छोटी छोटी मूल बातें तो आनी ही चाहिए | कुछ सहज सामान्य प्रारंभिक बिंदु नीचे दिए जा रहे हैं, शायद नवान्तुकों व अन्य जिज्ञासुओं के लिए सार्थक हो सकें ....
(अ) -अतुकांत कविता में- यद्यपि तुकांत या अन्त्यानुप्रास नहीं होता परन्तु उचित गति, यति व लय अवश्य होना चाहिए...यूंही कहानी या कथा की भांति नहीं होना चाहिए.....वही शब्द या शब्द-समूह बार-बार आने से सौंदर्य नष्ट होता है....यथा ..निरालाजी की प्रसिद्ध कविता.....
"अबे सुन बे गुलाव ,
भूल मत गर पाई, खुशबू रंगो-आब;
खून चूसा खाद का तूने अशिष्ट,
डाल पर इतरा रहा -
कैपीटलिस्ट ||"
यद्यपि कविता ह्रदय की भावाव्यक्ति है उसे सिखाया नहीं जा सकता ..परन्तु भाषा एवं व्याकरण व सम्बंधित विषय का उचित ज्ञान व अनुभव काव्य-कला को सम्पूर्णता प्रदान करता है | शास्त्रीय-छांदस कविता में सभी छंदों के विशिष्ट नियम होते हैं अतः वह तो काफी बाद की व अनुभव -ज्ञान की बात है परन्तु प्रत्येक नव व युवा कवि को कविता के बारे में कुछ सामान्य ज्ञान की छोटी छोटी मूल बातें तो आनी ही चाहिए | कुछ सहज सामान्य प्रारंभिक बिंदु नीचे दिए जा रहे हैं, शायद नवान्तुकों व अन्य जिज्ञासुओं के लिए सार्थक हो सकें ....
(अ) -अतुकांत कविता में- यद्यपि तुकांत या अन्त्यानुप्रास नहीं होता परन्तु उचित गति, यति व लय अवश्य होना चाहिए...यूंही कहानी या कथा की भांति नहीं होना चाहिए.....वही शब्द या शब्द-समूह बार-बार आने से सौंदर्य नष्ट होता है....यथा ..निरालाजी की प्रसिद्ध कविता.....
"अबे सुन बे गुलाव ,
भूल मत गर पाई, खुशबू रंगो-आब;
खून चूसा खाद का तूने अशिष्ट,
डाल पर इतरा रहा -
कैपीटलिस्ट ||"
(ब )- तुकांत कविता / गीत आदि में--जिनके अंत में प्रत्येक
पंक्ति
या
पंक्ति युगल आदि में (छंदीय गति के अनुसार) तुक या अन्त्यानुप्रास समान होता है...
१-- मात्रायें -- तुकांत कविता की प्रत्येक पंक्ति में
सामान मात्राएँ होनी चाहिए मुख्य प्रारंभिक वाक्यांश, प्रथम पंक्ति ( मुखडा ) की मात्राएँ गिन कर उतनी ही समान मात्राएँ प्रत्येक पंक्ति
में रखी जानी चाहिए....यथा ..
"कर्म प्रधान जगत में जग में, =१६ मात्राएँ
(२+१ , १+२+१ , १+१+१ , २ , १+१ , २ =१६)
प्रथम पूज्य हे सिद्धि विनायक | = १६.
(१+१ +१, २+१, २ , २+१ , १+२+१+१ =१६ )
कृपा करो हे बुद्धि विधाता , = १६
(१+२ , १+२ , २ , २+१ १ +२ +२ =१६ )
रिद्धि सिद्धि दाता गणनायक || = १६
(२+१, २+१ , २+२ , १+१+२+१+१ =१६ )
२ -लिंग ( स्त्रीलिंग-पुल्लिंग )---कर्ता व कर्मानुसार.....उसके अनुसार उसी लिंग का प्रयोग हो.... यथा ....
" जीवन हर वक्त लिए एक छड़ी होती है " ----यहाँ क्रिया -लिए ..कर्ता जीवन का व्यापार है..न कि छड़ी का जो समझ कर 'होती है ' लिखा गया ----अतः या तो ....जीवन हर वक्त लिए एक छड़ी होता है ....होना चाहिए ...या ..जिंदगी हर वक्त लिए एक छड़ी होती है ...होना चाहिए |
३- इसी प्रकार ..काव्य- विषय का --काल-कथानक का समय (टेंस ), विषय-भाव ( सब्जेक्ट-थीम ), भाव (सब्सटेंस), व विषय क्रमिकता, तार्किकता, एतिहासिक तथ्यों की सत्यता, विश्व-मान्य सत्यों-तथ्यों-कथ्यों ( यूनीवर्सल ट्रुथ ) का ध्यान रखा जाना चाहिए....बस .....|
४-- लंबी कविता में ...मूल कथानक, विषय-उद्देश्य, तथ्य व देश-काल ....एक ही रहने चाहिए ..बदलने नहीं चाहिए .....उसी मूल कथ्य व उद्देश्य को विभिन्न उदाहरणों व कथ्यों से परिपुष्ट करना एक भिन्न बात है ...जो विषय को स्पष्टता प्रदान करते हैं ....
-और सबसे बड़ा नियम यह है कि ...स्थापित, वरिष्ठ, महान, प्रात:-स्मरणीय ...कवियों की सेकडों रचनाएँ ..बार-बार पढना, मनन करना व उनके कला व भाव का अनुसरण करना .......उनके अनुभव व रचना पर ही बाद में आगे शास्त्रीय नियम बनते हैं......
"कर्म प्रधान जगत में जग में, =१६ मात्राएँ
(२+१ , १+२+१ , १+१+१ , २ , १+१ , २ =१६)
प्रथम पूज्य हे सिद्धि विनायक | = १६.
(१+१ +१, २+१, २ , २+१ , १+२+१+१ =१६ )
कृपा करो हे बुद्धि विधाता , = १६
(१+२ , १+२ , २ , २+१ १ +२ +२ =१६ )
रिद्धि सिद्धि दाता गणनायक || = १६
(२+१, २+१ , २+२ , १+१+२+१+१ =१६ )
२ -लिंग ( स्त्रीलिंग-पुल्लिंग )---कर्ता व कर्मानुसार.....उसके अनुसार उसी लिंग का प्रयोग हो.... यथा ....
" जीवन हर वक्त लिए एक छड़ी होती है " ----यहाँ क्रिया -लिए ..कर्ता जीवन का व्यापार है..न कि छड़ी का जो समझ कर 'होती है ' लिखा गया ----अतः या तो ....जीवन हर वक्त लिए एक छड़ी होता है ....होना चाहिए ...या ..जिंदगी हर वक्त लिए एक छड़ी होती है ...होना चाहिए |
३- इसी प्रकार ..काव्य- विषय का --काल-कथानक का समय (टेंस ), विषय-भाव ( सब्जेक्ट-थीम ), भाव (सब्सटेंस), व विषय क्रमिकता, तार्किकता, एतिहासिक तथ्यों की सत्यता, विश्व-मान्य सत्यों-तथ्यों-कथ्यों ( यूनीवर्सल ट्रुथ ) का ध्यान रखा जाना चाहिए....बस .....|
४-- लंबी कविता में ...मूल कथानक, विषय-उद्देश्य, तथ्य व देश-काल ....एक ही रहने चाहिए ..बदलने नहीं चाहिए .....उसी मूल कथ्य व उद्देश्य को विभिन्न उदाहरणों व कथ्यों से परिपुष्ट करना एक भिन्न बात है ...जो विषय को स्पष्टता प्रदान करते हैं ....
-और सबसे बड़ा नियम यह है कि ...स्थापित, वरिष्ठ, महान, प्रात:-स्मरणीय ...कवियों की सेकडों रचनाएँ ..बार-बार पढना, मनन करना व उनके कला व भाव का अनुसरण करना .......उनके अनुभव व रचना पर ही बाद में आगे शास्त्रीय नियम बनते हैं......
आज कल काव्य की विंडम्बना.....
मुझे लगता है यह विडम्बना
ही है ... कि एक ओर तो हम
एकाक्षरी-द्व्याक्षरी
आदि छंद के रूप में हर छंद आखर-शब्द को ही छंद मानते हैं
....बालक द्वारा प्रथम शब्द..माँ ..एक छंद ही है आदि आदि .....दूसरी ओर मुक्त छंद,
अतुकांत छंद आदि को अछूत | वस्तुतः हमारी
सनातन छंद परम्परा तो देववाणी संस्कृति के अतुकांत छंदों से ही है | जब
संस्कृत भाषा ज्ञान के तप, साधना, व
धैर्य की कमी के कारण तालबद्धता व संगीतमयता की विलुप्ति से संस्कृत का जन साधारण
द्वरा प्रयोग में ह्रास हुआ, जनभाषा प्राकृत व अपभ्रंश से
होते हुए हिन्दी तक आई तो तुकांत छंदों का आविर्भाव हुआ और तुकांत कविता मुख्य हुई
| परन्तु हिन्दी साहित्यकारों द्वारा मुक्त छंद काव्य व अतुकांत
रचनाओं की प्रस्तुति भी होती रही| मैथिली शरण गुप्त जी
के खंडकाव्य ‘सिद्धराज में देखें –
तो
फिर-
सिद्धराज
क्या हुआ
मर
गया हाय,
तुम
पापी प्रेत उसके |
छंद क्या है --- वे जो सिर्फ छंदोबद्ध कविता ही की बात करते हैं, वस्तुतः छंद, कविता, काव्य-कला व साहित्य का अर्थ ठीक प्रकार से नहीं जानते-समझते एवं संकुचित अर्थ व विचार धारा के पोषक हैं। वे केवल तुकांत-कविता को ही छंदोबद्ध कविता कहते हैं। कुछ तो केवल वार्णिक छंदों -कवित्त, सवैया, कुण्डली आदि को ही छंद समझते हैं।
वस्तुतः कविता, काव्य-कला, गीत आदि नाम तो बाद मैं आए। पद्य विधा का आविर्भाव तो छंद - नाम से ही हुआ। छंद ..ही कविता का वास्तविक सर्वप्रथम नाम है। अतः छंद ही कविता है, हर कविता छंद है -तुकांत, अतुकांत; गीत-अगीत सभी... छंद का अपना ही एक विस्तृत आकाश है।
मुक्त छंद कविता व अगीत --- वस्तुतः कविता वैदिक, पूर्व-वैदिक, पश्च-वैदिक व पौराणिक युग में भी सदैव मुक्त-छंद रूप ही थी| कालान्तर में मानव सुविधा स्वभाव वश, चित्रप्रियता वश- राजमहलों, संस्थानों, राजभवनों, बंद कमरों में
सुखानुभूति प्राप्ति हित कविता छंद-शास्त्र के बंधनों व पांडित्य प्रदर्शन के बंधन में बंधती गयी | नियंत्रण और अनुशासन प्रबल होता गया तथा वन-उपवन में मुक्त, स्वच्छंद विहरण करती कविता कोकिला ,गमलों व वाटिकाओं में सजे पुष्पों की भांति बंधनयुक्त होती गयी एवं स्वाभाविक, हृदयस्पर्शी, निरपेक्ष काव्य, विद्वता प्रदर्शन व सापेक्ष कविता में परिवर्तित होता गया |
प्रवाह व लय काव्य की विशेषताएं हैं जो काव्य के विषय-भाव व भाव सम्प्रेषण क्षमता की आवश्यकतानुसार छंदीय काव्य में भी होसकती हैं मुक्त-छंद काव्य में भी| अतः गीत-अगीत कोई विवाद का विषय नहीं हैं गेयता दोनों में ही होती है | वस्तुतः स्वयं संगीत व काव्य-गीत से अन्यथा कोई रचना पूर्ण गेय नहीं होती अतः अगीत में भी अपार संभावनाएं हैं |
हर नई विधा में कुछ चमत्कार होता है, परन्तु यदि उसमें समाज में अपेक्षित संस्कार, साहित्य के उचित गुण, भाव, कला व देश कालानुसार आस्था भी होती है तो वह कालजयी होती है, उसका समादर होता है, होना ही चाहिए|
कविता का पतन तकनीक के
कारण नहीं हुआ अपितु भाव दोषों के कारण हुआ| कथ्यों व विषय-भाव का तादाम्य, तथ्यों की वास्तविकता व सत्यता,
सहज भाषा-शैली व स्पष्ट सम्प्रेषणता का गौण
होजाना एवं तकनीक छंद-तकनीक, तुकांत-अतुकांत के विवाद, विषय-ज्ञान
की अल्पज्ञता, क्लिष्ट शिल्प व नए-नए
शब्दों का आडम्बर आदि
के कारण | स्वतन्त्रता के पश्चात हम काव्य के विषय चुनने में भटक गए कोई लक्ष्य ही
नहीं रहा | पाश्चात्य हलचल की चकाचौंध में हम पूर्व
व पश्चिम के जीवन तत्वों व व्यवहार में तादाम्य व समन्वय नहीं कर पाए | भौतिक सुखों व धनागम के ताने-बाने, उपकरण, साधन चुनते-बुनते हम
साहित्य में भी अपने स्वदेशी विषय-भावों से भटककर जीवन के
वास्तविक आनंद से दूर होते गए | विद्वानों, कवियों, साहित्यकारों, मनीषियों
ने अपने कर्त्तव्य नहीं निभाये | समाज के इसी व्यतिक्रम
ने व्यक्ति को कविता व साहित्य से क्या दूर किया जीवन से ही दूर कर दिया | और चक्रीय प्रतिक्रया-व्यवस्थानुसार स्वयं साहित्य
भी व्यक्ति से दूर जाने लगा |
कविता एवं अलन्कारादि सादृश्य-विधान --
काव्य का कला पक्ष काव्य की शोभा बढाने के साथ-साथ सौन्दर्यमयता, रसात्मकता व आनंदानुभूति से जन-जन रंजन के साथ विषय-भाव की रुचिकरता व सरलता से काव्य की सम्प्रेषणता बढ़ाकर मानव के अंतर की गहराई को स्पर्श करके दीर्घजीवी प्रभाव छोडने वाला बनाता है | परन्तु अत्यधिक सचेष्ट लक्षणात्मकता भाषा व विषय को बोझिल बनाती है एवं विषय व काव्य जन सामान्य के लिए दुरूह होजाता है एवं उसका जन-रंजन व वास्तविक उद्देश्य पीछे छूट जाता है , पाण्डित्याम्बर व बुद्धि-विलास प्रमुख होजाता है |
वस्तुतः रचना की ऊंचाई पर पहुँच कर कवि सचेष्ट लक्षणा व अलन्कारादि विधानों का परित्याग कर देता है | रचना के उच्च भाव स्तर पर पहुँच कर कवि अलन्कारादि लक्षण विधानों की निरर्थकता से परिचित हो जाता है तथा अर्थ रचना के सर्वोच्च धरातल पर पहुँच कर भाषा भी सादृश्य-विधान के सम्पूर्ण छल-छद्मों का परित्याग कर देती है | तभी अर्थ व भाव रचना की सर्वोच्च परिधि दृश्यमान होती है | हाँ जहां काव्य है वहाँ कथ्य में कलापक्ष स्वतः ही सहजवृत्ति से आजाता है, क्योंकि कविता व काव्य-रचना स्वयं ही एक अप्रतिम कला है |
अभिव्यक्ति व काव्य प्रतिभा --- प्रतिभा किसी देश, काल, जाति, धर्म, व्यवसाय, उम्र व भाषा की मोहताज़ नहीं होती --- हिन्दी साहित्य के स्वर्णिम काल –भक्ति-काल की निर्गुण शाखा के संत कवि प्रायः अधिक पढ़े लिखे नहीं थे परन्तु जो उच्च दर्शन, धर्म, व्यवहार , ज्ञान के काव्य उन्होंने रचे उनसे इस तथ्य की पुष्टि होती है.. कबीर तो कहते ही हैं ....
" मसि कागद छुओ नहीं, कलम गही ना हाथ ,
चारिउ युग का महातम, कबिरा मुखहि जनाई बात |"
साहित्य व कविता
में विशेषज्ञता ---- साहित्य व कविता भी जन जन व जन जीवन की अपेक्षा अन्य व्यवसायों की भांति एक विशिष्ट क्षेत्र में सिमट कर रह गए हैं | वे ही लिखते हैं; वे ही पढ़ते हैं | समाज आज विशेषज्ञों में बँट गया है | विशिष्टता के क्षेत्र बन गए हैं | जो समाज पहले आपस में संपृक्त था, सार्वभौम था -परिवार की भांति,
अब खानों में बँटकर एकांगी होगया है। विशेषज्ञता केअनुसार नई-नई जातियां-वर्ग बन रहे है | व्यक्ति जो पहले सर्वगुण-भाव था अब विशिष्ट-गुण सम्पन्न- भाव रह गया है | व्यक्तित्व बन रहा है-व्यक्ति पिसता जारहा है। जीवन सुख के लिए जीवन आनंद की बलि चढ़ाई जा रही है | यह आज की पीढी की संत्रासमय अनिवार्य नियति है |
पर निश्चय ही हमारी आज की यह युवा पीढी उचित सहानुभूति व आवश्यक दिशा-निर्देशन की हकदार है; वास्तव में वे हमारी पीढी की भूलों व अदूरदर्शिता का परिणाम भुगत रहे हैं| अपने अति-सुखाभिलाषा भाव में रत हमारी पीढी उन्हें उचित दिशा निर्देशन व आदर्शों को संप्रेषित करने में सफल नहीं रही |
पर निश्चय ही हमारी आज की यह युवा पीढी उचित सहानुभूति व आवश्यक दिशा-निर्देशन की हकदार है; वास्तव में वे हमारी पीढी की भूलों व अदूरदर्शिता का परिणाम भुगत रहे हैं| अपने अति-सुखाभिलाषा भाव में रत हमारी पीढी उन्हें उचित दिशा निर्देशन व आदर्शों को संप्रेषित करने में सफल नहीं रही |
दोहे
कैसे कैसे मूर्ख हैं, बन बैठे कवि आज।
कहें लुप्त है काव्य का नभ में सूरज आज।
काव्य रूप मां शारदे, क्या हो सकती लुप्त।
तत्व-ज्ञान से हीन कवि,मां को करते छुब्ध।
बिना छन्द कविता कहीं होती है महाराज।
मुक्तछन्द तुकहीन जो, वेद-मन्त्र रसराज।
जिसमें हो कुछ गेयता, काव्य उसी का नाम।
लय,गति,यति हो, तुक न हो,मुक्तछन्द का नाम।
गन्गा तो गन्गा सदा, कीचड मिले या पंक।
वह भी गंगा रूप धर, हो जाती शुचि कन्ज।
बिना छंद रचते यथा, ज्यादातर कविराज ।
मां शारदे कृपा यह, नई रह-गुजर आज।
अज्ञानी पिछडे रहें, प्रगति न आये रास ।
छन्द तो सदा ही रहे, कविता का सरताज।
मुक्त-छन्द तुक रहित हो, या तुकान्त हो छंद।
गति यति हो, रस-भाव हो, मिलता काव्यानंद ।
पढ कर सब देखें जरा, वे अगीत के छंद ।
ब्लोग ’अगीतायन’पढें, मिले अमित आनंद ।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें