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गुरुवार, 16 जनवरी 2014

"ग़ज़ल-किसी के सुर नहीं मिलते" ( डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')

सजे कैसे कोई महफिल, किसी के सुर नहीं मिलते
बहुत ऐसे भी गुलशन हैं, जहाँ पर गुल नहीं खिलते
 
दिलों में दूरियाँ, लेकिन दिखावा प्यार का होता
सभी है नाम के दर्जी, फटी चादर नहीं सिलते
 
चलें गोली, फटें गोले, नहीं मतलब किसी को है
जहाँ मुर्दार बस्ती हो, वहाँ नरमुण्ड नहीं हिलते,
 
विदेशी खून के धारे, नसों में जिनकी बहते हों
वहाँ पर देश भक्तों के, कभी चेहरे नहीं खिलते
 
सजेगा रूप अब कैसे, यहाँ केशर की क्यारी का
रिसाले अब अहिंसा के, दुकानों में नहीं मिलते

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