----डा श्याम गुप्त के महाकाव्य .."प्रेमकाव्य" से... सृष्टि-सृजन का वर्णन....( कुण्डली छंद ) ....
एकोहं-बहुस्याम१ की, इच्छा परम अनंत |
इच्छा परम अनंत,जगत की आदिम कारक |
यही अहं संकल्प, प्रेम जग का परिचायक |
करे 'श्याम, संकल्प, शांत सत्ता में हलचल |
कम्पन से गति शब्द वायु मन और बने जल ||
मन से तन्मात्रा हुई, अहंकार और स्वत्व ,
बने प्रेम औ भावना, जल से सब जड़ तत्व |
जल से सब जड़ तत्व, अहं से बुद्धि-वृत्ति सब ,
विश्व प्रेम वश, ईश-अहं से सजता यह जग |
कहें 'श्याम' जग, आदि अंत स्थिति लय कर्ता ,
जो है स्वयं असीम, ससीम२ स्वयं को करता ||
लक्षण हीना,शांत-चित, प्रकृति तम-आवृत्त |
प्रकृति तम-आवृत्त, आदि इच्छा लहराई ,
आदि शम्भु३ हुए प्रकट,शक्ति अपरा४ मुस्काई |
अपरा-शम्भु संयोग से,श्याम, हुआ महत्तत्व५ ,
कामबीज के रूप में, व्यक्त हुआ अव्यक्त ||
रोम -रोम हेमांड थे, ब्रह्मा सब में व्याप्त |
ब्रह्मा सब में व्याप्त, घूमता रहा साल भर ,
क्यों हूँ, क्या हूँ, नहीं कभी, कुछ समझ सका पर |
वाणी ने दी प्रेरणा, करने प्रभु का ध्यान ,
प्रकट हुआ बन चतुर्मुख७ , ब्रह्मा रूप -निधान ||
जल में उस परमात्मा, का जो अंश स्वरुप,
विष्णु नाम से शयन रत, नारायण८ के रूप |
नारायण के रूप, सृष्टि की इच्छा में रत ,
स्वर्णनाल पर स्वर्णकमल फिर प्रकट हुआ तब |
श्याम, कमल पर ब्रह्म तब, प्रकटा ब्रह्मा रूप,
सृजन हेतु सब प्राणि औ, वेद प्रकृति रस रूप ||
द---सृष्टि---
वीणा की ध्वनि-ज्ञान से, ब्रह्मा हुए सचेत,
पुरा-सृष्टि९ के ज्ञान का, मिला उन्हें संकेत |
मिला उन्हें संकेत, अंड को किया विभाजित,
नभ-पृथ्वी के मध्य,किया फिर जल को स्थित |
बने श्याम, मन, अहं, इन्द्रियाँ, तन्मात्राएँ ,
क्षिति पावक सब भूत१०,काल गति और दिशाएँ ||
रमे नहीं११ ,संसार में, ब्रह्मा रहे विचार |
ब्रह्मा रहे विचार, चलेगा कैसे यह जग१२ ,
कार्य-एषणा प्रकट हुई , ब्रह्मा के मन तब |
किया विभाजित स्वयं को, नर-नारी के रूप,
लिंग रूप में महेश्वर, माया योनि स्वरुप ||
लिंग-योनि रूपा हुई, मैथुनि-सृष्टि१3 अनूप |
मैथुनि-सृष्टि अनूप,प्रेम-रस की बन सरिता ,
बहती मन की राह, अंग बन, भाव-सरसता |
कहें 'श्याम, उस आदि-प्रेम की छाया-माया,
जड़ जंगम संसार बीच, बन "प्रेम" समाया || :
[कुंजिका--- १= ब्रह्म की मूल इच्छा एक से बहुत होने की, जो ओउम रूप में व्यक्त होती है और शांत अवस्था में अशांति-विकृति से सृष्टि-क्रम प्रारम्भ होता है..जो सृष्टि के रचे जाने का मूल कारण है, इसे ब्रह्म का मानव के प्रति मूल प्रेम कहाजाता है... २= जगत के प्रेम के वश ही वह असीम अव्यक्त परब्रह्म स्वयं को ससीम ईश्वरीय-सत्ता में व्यक्त करता है... ३= ब्रह्म के दो मूल व्यक्त भाव परा ( व्यक्त ब्रह्म भाव ) से उत्पन्न आदि-ईश्वर आदि-शंभू व ..४=अपरा ( व्यक्त आदि-शक्ति भाव ) माया ...५= दोनों के संयोग(मूल-प्रेम) से प्राप्त मूल आदि-तत्व जिससे आगे चलाकर सब कुछ निर्मित हुआ...६= दोनों के संयोग से असंख्य सृष्टि-बीज --जिससे समस्त असंख्य ब्रह्मांडों की रचना हुई ...७= रचयिता ब्रह्मा- चारमुखों वाला जो सृष्टि ज्ञान होने पर कमल-नाल पर प्रकट हुआ......८= क्षीर सागर( ईथर, शून्य-भवन , अंतरिक्ष आदि आकाश ) में स्थित ब्रह्म का स्वरुप --नार =जल ...अयन = निवास ...नारायण विष्णु ...९= सृष्टि हर कल्प में विनाश को प्राप्त होती है, तत्पश्चात पुनः रचित होती है, प्रत्येक बार ब्रह्मा उस ज्ञान को पुनः स्मरण कराये सृष्टि करता है... १०= पदार्थ ... ११= सनत्कुमार ..आदि सर्व-प्रथम मानव थे जो ब्रह्मा द्वारा मन-संकल्प से बने थी (अलिंगी -सृष्टि ) अतः काम भावना थी ही नहीं , वे संसार का अर्थ ही नहीं जानते थे ... १२= ब्रह्मा -चिंतित हुए की मैं कब तक बनाता रहूंगा, कोइ स्वचालित -निश्चित व्यवस्था हो जो मेरे बाद स्वत संसार -रचना करती रहे... १३= ब्रह्मा द्वारा रचित नर व नारी का जोड़ा जिसमें शम्भु-महेश्वर के इच्छा व प्रेम के विभिन्न युग्म भाव समाहित होने से... काम-भाव -लिंग व योनि रूप में प्रकट हुए एवं सृष्टि का स्वचालित -रचना क्रम प्रारम्भ हुआ | ]
अ. सृष्टि-सार....
ईश्वर, ईशत-अहं के, मध्य आदि और अंत |एकोहं-बहुस्याम१ की, इच्छा परम अनंत |
इच्छा परम अनंत,जगत की आदिम कारक |
यही अहं संकल्प, प्रेम जग का परिचायक |
करे 'श्याम, संकल्प, शांत सत्ता में हलचल |
कम्पन से गति शब्द वायु मन और बने जल ||
मन से तन्मात्रा हुई, अहंकार और स्वत्व ,
बने प्रेम औ भावना, जल से सब जड़ तत्व |
जल से सब जड़ तत्व, अहं से बुद्धि-वृत्ति सब ,
विश्व प्रेम वश, ईश-अहं से सजता यह जग |
कहें 'श्याम' जग, आदि अंत स्थिति लय कर्ता ,
जो है स्वयं असीम, ससीम२ स्वयं को करता ||
ब-भगवत प्रादुर्भाव--
जग के कारण-मूल की, सत्ता थी अव्यक्त,लक्षण हीना,शांत-चित, प्रकृति तम-आवृत्त |
प्रकृति तम-आवृत्त, आदि इच्छा लहराई ,
आदि शम्भु३ हुए प्रकट,शक्ति अपरा४ मुस्काई |
अपरा-शम्भु संयोग से,श्याम, हुआ महत्तत्व५ ,
कामबीज के रूप में, व्यक्त हुआ अव्यक्त ||
स -ब्रह्मा प्रादुर्भाव --
थे चिद्बीज,असीम के,कण कण में संव्याप्त६ ,रोम -रोम हेमांड थे, ब्रह्मा सब में व्याप्त |
ब्रह्मा सब में व्याप्त, घूमता रहा साल भर ,
क्यों हूँ, क्या हूँ, नहीं कभी, कुछ समझ सका पर |
वाणी ने दी प्रेरणा, करने प्रभु का ध्यान ,
प्रकट हुआ बन चतुर्मुख७ , ब्रह्मा रूप -निधान ||
जल में उस परमात्मा, का जो अंश स्वरुप,
विष्णु नाम से शयन रत, नारायण८ के रूप |
नारायण के रूप, सृष्टि की इच्छा में रत ,
स्वर्णनाल पर स्वर्णकमल फिर प्रकट हुआ तब |
श्याम, कमल पर ब्रह्म तब, प्रकटा ब्रह्मा रूप,
सृजन हेतु सब प्राणि औ, वेद प्रकृति रस रूप ||
द---सृष्टि---
वीणा की ध्वनि-ज्ञान से, ब्रह्मा हुए सचेत,
पुरा-सृष्टि९ के ज्ञान का, मिला उन्हें संकेत |
मिला उन्हें संकेत, अंड को किया विभाजित,
नभ-पृथ्वी के मध्य,किया फिर जल को स्थित |
बने श्याम, मन, अहं, इन्द्रियाँ, तन्मात्राएँ ,
क्षिति पावक सब भूत१०,काल गति और दिशाएँ ||
क -प्रजा --
सनक सनंदन सनातन,नारद, सनत्कुमार,रमे नहीं११ ,संसार में, ब्रह्मा रहे विचार |
ब्रह्मा रहे विचार, चलेगा कैसे यह जग१२ ,
कार्य-एषणा प्रकट हुई , ब्रह्मा के मन तब |
किया विभाजित स्वयं को, नर-नारी के रूप,
लिंग रूप में महेश्वर, माया योनि स्वरुप ||
ख -- माहेश्वरी प्रजा----
माहेश्वरी प्रजा सब, माया-भगवद रूप,लिंग-योनि रूपा हुई, मैथुनि-सृष्टि१3 अनूप |
मैथुनि-सृष्टि अनूप,प्रेम-रस की बन सरिता ,
बहती मन की राह, अंग बन, भाव-सरसता |
कहें 'श्याम, उस आदि-प्रेम की छाया-माया,
जड़ जंगम संसार बीच, बन "प्रेम" समाया || :
[कुंजिका--- १= ब्रह्म की मूल इच्छा एक से बहुत होने की, जो ओउम रूप में व्यक्त होती है और शांत अवस्था में अशांति-विकृति से सृष्टि-क्रम प्रारम्भ होता है..जो सृष्टि के रचे जाने का मूल कारण है, इसे ब्रह्म का मानव के प्रति मूल प्रेम कहाजाता है... २= जगत के प्रेम के वश ही वह असीम अव्यक्त परब्रह्म स्वयं को ससीम ईश्वरीय-सत्ता में व्यक्त करता है... ३= ब्रह्म के दो मूल व्यक्त भाव परा ( व्यक्त ब्रह्म भाव ) से उत्पन्न आदि-ईश्वर आदि-शंभू व ..४=अपरा ( व्यक्त आदि-शक्ति भाव ) माया ...५= दोनों के संयोग(मूल-प्रेम) से प्राप्त मूल आदि-तत्व जिससे आगे चलाकर सब कुछ निर्मित हुआ...६= दोनों के संयोग से असंख्य सृष्टि-बीज --जिससे समस्त असंख्य ब्रह्मांडों की रचना हुई ...७= रचयिता ब्रह्मा- चारमुखों वाला जो सृष्टि ज्ञान होने पर कमल-नाल पर प्रकट हुआ......८= क्षीर सागर( ईथर, शून्य-भवन , अंतरिक्ष आदि आकाश ) में स्थित ब्रह्म का स्वरुप --नार =जल ...अयन = निवास ...नारायण विष्णु ...९= सृष्टि हर कल्प में विनाश को प्राप्त होती है, तत्पश्चात पुनः रचित होती है, प्रत्येक बार ब्रह्मा उस ज्ञान को पुनः स्मरण कराये सृष्टि करता है... १०= पदार्थ ... ११= सनत्कुमार ..आदि सर्व-प्रथम मानव थे जो ब्रह्मा द्वारा मन-संकल्प से बने थी (अलिंगी -सृष्टि ) अतः काम भावना थी ही नहीं , वे संसार का अर्थ ही नहीं जानते थे ... १२= ब्रह्मा -चिंतित हुए की मैं कब तक बनाता रहूंगा, कोइ स्वचालित -निश्चित व्यवस्था हो जो मेरे बाद स्वत संसार -रचना करती रहे... १३= ब्रह्मा द्वारा रचित नर व नारी का जोड़ा जिसमें शम्भु-महेश्वर के इच्छा व प्रेम के विभिन्न युग्म भाव समाहित होने से... काम-भाव -लिंग व योनि रूप में प्रकट हुए एवं सृष्टि का स्वचालित -रचना क्रम प्रारम्भ हुआ | ]
श्री मद भागवत पुराण में वर्णित सृष्टि की उत्पत्ति का बहुत सुन्दर व सटीक चित्रण किया है ………आभार
जवाब देंहटाएंधन्यवाद वन्दना जी .....
हटाएंधन्यवाद शास्त्री जी....
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