भारतीय धर्म, दर्शन राष्ट्र -संस्कृति के विरुद्ध नवीन आवाजें व उनका यथातथ्य निराकरण --- एक क्रमिक आलेख-----डा श्याम गुप्त
भारतीय धर्म, दर्शन राष्ट्र -संस्कृति के विरुद्ध नवीन आवाजें व उनका
यथातथ्य निराकरण --- एक क्रमिक आलेख-----डा श्याम गुप्त
भावसृष्टि सृजन के समय ब्रह्मा जी को
नींद आगई, असावधानीवश आसुरी सृष्टि का सृजन होगया अतः बुराई का जन्म हुआ और बुरे
भावों व लोगों की सृष्टि | एक तात्विक विचार यह भी है कि जीवधारियों-प्राणियों-मनुष्यों
को अच्छाई का ज्ञान निरंतर होता रहे, इसके लिए तुलना रूप में बुराई का
प्रादुर्भाव, ब्रह्म की ही इच्छा थी | अतः सृष्टि में अच्छाई व बुराई का एक
सतत युद्ध चलता रहता है |
भारतीय धर्म संस्कृति के विरुद्ध सदैव समय
समय पर आवाजें उठती रहती हैं | चूंकि यह एक गहन तात्विक एवं मानव सद-आचरण आधारित
उच्च संस्कृति है अतः यह स्वाभाविक है, चाहे वह पूर्व वैदिककाल में शुक्राचार्य
का विरोध एवं आसुरी विचार धारा हो या वैदिककाल में विश्वामित्र की
नव-विचारधारा या पौराणिक काल में ऋषि जाबालि की नास्तिक एवं रावण की
रक्ष संस्कृति, तत्पश्चात कंस,
जैन, बौद्ध, ईसाई , इस्लामिक एवं
आम्बेडकर आदि की नवबौद्ध विचार धाराएं आदि |
आजकल हमारे देश में गोंड आदिवासी दर्शन
और बहुजन संस्कृति व महिषासुर के नाम पर एक नवीन विरोधी विचारधारा प्रश्रय पा
रही है जिसे महिषासुर
विमर्श का नाम दिया जारहा है | जिसमें जहां सारे भारत में समन्वित समाज की
स्थापना के साथ धर्मों व प्राचीन जातियों आदि का अस्तित्व नहीं के बरावर रह गया
था, अब असुर, नाग, गोंड आदि विभिन्न जातियों
वर्णों को उठाया जा रहा है | भ्रामक विदेशी ग्रंथों आलेखों में आर्यों को भारत
से बाहर से आने वाला विदेशी बताये जाने के भारत में फूट डालने वाले षडयन्त्र से
भावित-प्रभावित वर्ग द्वारा इंद्र, आदि
देवों को आर्य एवं शिव व अन्य तथाकथित असुर व नाग, गोंड आदि जातियों भारत की मूल आदिवासी
बताया जा रहा है | वे स्वयं को हिन्दू धर्म में मानने से भी इनकार करने
लगे हैं |
विभन्न आलेखों, कथनों, प्रकाशित पुस्तकों
में उठाये गए भ्रामक प्रश्नों व विचारों, कथनों का हम एक एक करके उचित समाधान
प्रस्तुत करेंगे जो ४० कथनों-समाधानों एवं उपसंहार के रूप में प्रस्तुत किया
जाएगा, विभिन्न क्रमिक ११ आलेख-पोस्टों द्वारा |
प्रस्तुत है पोस्ट १--
कथन १-----जहां-जहां धर्म को एक अनिवार्य
जोड़ने वाली विचारधारा या जीवन शैली की तरह देखा जाता है वहां-वहां धर्म स्वयं की
एक स्पष्ट परिभाषा रखता है और अपने अनुयायियों को भी उतनी ही स्पष्टता से परिभाषित
करते हुए आपस में जोड़ता है। क्या यह बात भारतीय धर्म के बारे
में और भारत में बसने वाले समुदायों के बारे में सही है? यह मात्र एक प्रश्न ही नहीं है बल्कि
स्वयं में कई अन्य प्रश्नों का उत्तर भी है, और हजारों अनसुलझी पहेलियों को सुलझाने
वाला सूत्र उपलब्ध करवाता है। इसके सहारे हम न केवल भारतीय उपमहाद्वीप के दार्शनिक,
धार्मिक, भाषायिक और ऐतिहासिक क्रमविकास को जान सकते
हैं बल्कि यह भी जान सकते हैं कि एक ही धर्म में होने के
बावजूद इस हिन्दू कहे जाने वाले समुदाय में इतना भेदभाव और अलगाव क्यों है।इस सन्दर्भ में डॉ. अंबेडकर अपनी महत्वपूर्ण रचना ‘रिडल्स इन हिन्दुइज्म’ में विभिन्न धर्मों और उनके मानने वालों की पहचान पर एक तार्किक सवाल उठाते हैं। कि कोई पारसी खुद को पारसी क्यों कहता है या कोई इसाई खुद को इसाई कहता है। इस सवाल के लिए उसके पास एक स्पष्ट उत्तर होता है। यही सवाल आप किसी हिन्दू से पूछिए कि वो हिन्दू क्यों है? वह यह नहीं बता सकेगा कि हिन्दू होने का क्या अर्थ होता है और किस चीज में विश्वास रखने पर कोई हिन्दू बनता है|
समाधान-१
---क्या यह शीर्षक वे हिन्दी में या अपनी मातृभाषा
मराठी में नहीं लिखा जा सकता था, अपने दलित, अनपढ़ लोगों के लिए, नहीं.. ताकि उन्हें कुछ समझ न आये और उन्हें
उल्लू बनाता रहा जाये ---क्या अपने अँगरेज़ आकाओं के लिए लिखा गया यह |
वस्तुतः आंबेडकर को यथार्थ नहीं ज्ञात था,
एक ईसाई भंगी भी जानता होगा की हमारी एक किताब है बाइबल
हम उसे मानते हैं, चाहे उसने पढी न हो, यही उत्तर एक पादरी का भी होगा जो रोज बाइबल पढ़ता होगा |
हिन्दू का
निम्न तबका भी रामायण से उदाहरण दे सकता है और यह हमारा धर्मग्रन्थ है एवं हम
हिन्दुस्थान के आदिमूल वासी होने से हिन्दू हैं,हम भिन्न भिन्न विचारों को स्वीकार
करते हैं, कह सकता है परन्तु यदि किसी हिन्दू विद्वान् से पूछेंगे तो वह पूर्णरूप
से व्याख्या सहित बताएगा कि हम हिन्दू क्यों हैं ।
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कथन-२ वे (डा.आम्बेडकर
) यह स्थापित करना
चाहते हैं कि धर्म विशेष से संबद्ध होने के लिए किन्ही विशेष विश्वासों मान्यताओं अभ्यासों
और कर्मकांडों की आवश्यकता होती है,एक ही धर्म के मानने वालों में इन आधारों पर
साम्य होना चाहिए। एक दूसरे से भिन्न या विपरीत विश्वासों और व्यवहारों वाले लोगों
को एक धर्म का अनुयायी नहीं माना जा सकता।समाधान -२ इसका अर्थ है कि आंबेडकर को धर्म क्या है इसका ज्ञान नहीं था, वे मज़हब व कर्मकांडों को धर्म समझते थे, जो हिन्दू धर्म के विविध रूप व अंग व जीवन पद्दतियां है और हिन्दू धर्म के अतिरिक्त विश्व के सभी धर्म, मज़हब हैं धर्म नहीं | वे किसी एक किताब या व्यक्ति विशेष के अनुयायी हैं, मानवता दर्शन के नहीं |
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कथन -३-वर्त्तमान शिवलिंग को ब्राह्मणी धर्म ने, कुपार लिंगो के
गोंडी धर्म और दर्शन और गोंडी धर्म से लिया है |
समाधान ३-ये
भूल जाते हैं कि ब्राहमणी धर्म नामक कोइ धर्म ही नहीं है, ब्राहमण-क्षत्री आदि कोई आदि-वर्गीकरण भी नहीं
है | आदिवासियों के काल में वर्गीकरण कब था वह तो मानव के और विक्सित
होने के बाद हुआ है | निश्चय ही शिव आदि देवता हैं, वर्गीकरण के पश्चात भी वे ब्राह्मणों के ही नहीं
अपितु सभी विश्व व सभी वर्गों के देवता हैं, आज भी | पाषाण युगीय आदि गोंडी काल में तो
धर्म या दर्शन की अवधारणा ही नहीं थी |
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कथन ४-सेमेटिक मूल के तीन मुख्य धर्मों यहूदी,
इसाइयत और इस्लाम में आंतरिक
भेद कितने ही हों, लेकिन
उनकी दुनिया भर में फ़ैली आबादी स्वयं को यहूदी इसाई या मुस्लिम साबित करने के लिए बहुत
ही ठोस और सर्वमान्य आधारों की तरफ संकेत कर पाती है। ये संकेत उनकी एक
किताब, एक पैगम्बर या एक ईश्वर को लेकर है। समाधान-४- यही तो मूल अंतर है हिदू धर्म व अन्य धर्मों में ---अन्य सभी धर्मों में आंतरिक भेद तमाम होंगे, लेकिन उनकी दुनिया भर में फ़ैली आबादी स्वयं को उस धर्म का बतायेगी, यह धार्मिक अज्ञानता है एवं केवल दिखावा है,; ये धर्म नहीं अपितु मज़हब हैं, संगठन हैं, वर्ग-संस्थाएं हैं ; वहीं हिन्दू धर्म मानने वालों में ऊपरी विभिन्नता कितनी भी हो परन्तु आतंरिक मूल रूप में एकरूपता पाई जाती है जिसे विविधता में एकता कहा जाता है जो हिन्दू धर्म की विशेष विशिष्टता है | जो इस धर्म को अनंतकालिकता देती है, अनित्यता, अखण्डता |
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कथन-५- दो महत्वपूर्ण धर्मों बौद्ध और जैन धर्म में भी यह सुविधा है। जैन तो खैर भारत में ही सिमट गए हैं, लेकिन बौद्धों की विश्व भर में फ़ैली आबादी कुछ बहुत महत्वपूर्ण विश्वासों के आधार पर हमेशा से एकता के सूत्र में बंधी रहती आई है। ये विश्वास असल में बुद्ध, धम्मपद, त्रिशरण मन्त्र और त्रिपिटकों में विश्वास है जो उन सबको एकसूत्र में बांधता है। साथ ही ईश्वर और अनश्वर आत्मा के निषेध सहित क्षणवाद और शून्य के दर्शन के प्रति निष्ठा भी उनकी एकता को सिद्ध करता है। ठीक उसी तरह जैसे विश्व भर के मुस्लिमों की बिना शर्त निष्ठा एक अल्लाह एक कुरआन और एक मुहम्मद में है।
समाधान-५----यह पशुओं की भांति ‘पशु–भाव’ एनीमल इंस्टिंक्ट’, झुण्ड–भाव-मानसिकता है, क्राउड –मेंटालिटी जो एक ही विचार भाव से हांके जाने के समान है | उच्च विक्सित स्वानुभूत स्वतंत्र मानव वैचारिकता भाव नहीं, जो हिदू धर्म में है, कोइ किसी भी देवता, विचार या कर्मकांड को माने पर वह मानवीय व्यवहारगत हिन्दू ही है |
-----क्रमश पोस्ट २ ---आगे ..
सचल मन वैज्ञानिक ध्यान ( Movable Mind Scientific Meditation- MMST)
जवाब देंहटाएं(ध्यान की आधुनिक वैज्ञानिक विधि)
आधुनिक समय की आपाधापी को देखते हुये मुझे समय के हिसाब से परिवर्तित होने वाली ध्यान की विधि के विषय में सोंचना पडा। विशेष बात यह है आप यह सब अपने घर पर ही करें। कहीं भटके नहीं। यह सब बिना शुल्क है। हां यदि आप यह करते हैं तो कुछ तो शुल्क देना होगा (शास्त्रॉनुसार यह तब ही जल्दी फलित होगा) । तो आप दक्षिना स्वरुप किसी गरीब की सहायता कर दे। किसी बालक को पढने हेतु साम्रगी दे दे। गौ को गरीब को भोजन करा दे। मंदिर में मिठाई भोजन बांट दे। प्याउ खोल दें। किसी सनातन प्रचारक साधु संत को कुछ देदे। पर किसी हट्टे कट्टे धर्म के ठेकेदार को न दें।
मित्रों इस विधि में आप मंत्र जप और शरीर के विभिन्न अंगों का साथ लेकर ध्यान की गहरी अवस्था में जा सकते हैं। प्रत्येक मनुष्य के ध्यान की विधि अलग अलग उसके कर्म के हिसाब से होगी। कुछ की कुंडलनी भी जागृत हो सकती है। कुछ विशेष भयानक अनुभव भी हो सकते हैं। पर आप डरें मत। हर समस्या का समाधान होगा। हर हाल में आपकी धार्मिकता बढेगी।
यह विधियां हर जाति धर्म समुदाय चाहे मुस्लिम हो ईसाई हो जैन हो बौद्द हो कोई भी हो सबके लिये कारगर है। जो जिस धर्म का होगा उसको उसी के धर्म के हिसाब से ध्यान बताया जायेगा।
मैं गुरु नहीं हूं और न अपने को कहलाना पसंद करुंगा। मैं दास हूं प्रभु का वोही कहलाना पसंद करुंगा। जैसे प्रभुदास, सर, विपुल जी या विपुल भी चलेगा।
आज बडी बडी फीस लेकर और नकली गुरुओ की दुकानें प्राय: भोली जनता को भ्रमित कर देते हैं। कहीं ब्र्ह्म विद्या की कहीं कुंडलनी की कहीं सिद्दी की तमाम दुकानें खुली हुई हैं। पैसे दो ज्ञान लो। यह सत्य है कलियुग में ईश प्राप्ति बेहद आसान है। पर इतनी आसान भी नहीं कि किसी के पिता की सम्पत्ति कि जैसे चाहो बेच दो। एक साधारण से ध्यान को, जिसमें प्रभु समर्पण बेहद आवश्यक है, उसको नये नये नाम देकर कहीं त्राटक तो कहीं विपश्यना, तो कहीं शब्द योग, नाद योग, राजयोग पता नहीं किन किन नामों से बडी बडी दुकानें चल रहीं है। जो पैसा जन सेवा में लगना चाहिये उसको प्रचार में लगा कर अपनी दुकान चमकाने की होड लगी है। अनुभव जरा सा हुआ कि दुकान सजा ली बिना परम्परा के गुरु बन बैठे। आज मेरे 1 करोड, मेरे 50 लाख दुनिया में अनुयायी हैं। बस इसी बात का गर्व। इन नकली अनुभवहीन दुकानदारों से पूछो कि अहम ब्रम्हास्मि या एकोअहम द्वितियोनास्ति या सोहम अनुभूति में क्या होता है तो सब के सब बगलें झाकेंगे। चलो देव दर्शन की अनुभुति कैसे होती है तो मुंह चुरायेगे। यह पापी जानते नहीं कि जब योग होता है तो कैसा लगता है तो किताबों में देखेंगे। इन दुष्टों से पूछो चलो किसी चेले को आगे क्या होगा तो भाग ही जायेंगे या हरि ओम बोलकर कन्नी काट लेंगें। जगत गुरु, जगतमाता, अखंडमंडलाकार, योगीराज जैसे नामपट्ट वाले ढोग़ी पहले खुद जाने कि ब्रह्म क्या है। जिस दिन जान लेंगे उस दिन यह नामपट्ट हटा लेंगें। पर इनको न जानना है न इसकी इच्छा है। इनको तो भगवान के नाम पर दुकान चलाकर शोहरत पैसा और भोग चाहिये। भले ही बाद में नरक भोंगे। ओशो की तरह प्रेत योनि में भटके पर अभी तो मजा ले ले।
अरे मूर्खों सरल बनो भोली भाली जनता को ठगो मत। धन सम्पत्ति सब प्रभु ऐसे ही दे देता है। दुष्टो श्रेष्ठ सनातन का प्रचार करो। श्रीमदभग्वदगीता को जन जन तक कल्यान के लिये पहुचाओ। वेद वाणी बिना स्वार्थ के प्रसारित करो। ईश का अनुभव बिना शुल्क बिना गुरु बने कराओ। रे पगलों पाप के भागीदार मत बनों। आंखें खोलो जाग जाओ।
विपुल सेन। नवी मुम्बई\ 09969680093