तपी दोपहर
तपी धूप करती रही, टुकड़ा छांव तलाश |
नहीं मिली तो आ गई,थक सूरज के पास||
तपी धूल पर तप रहे,हर पल सबके पांव |
वृक्षों से खाली हुए, लगभग सारे गांव||
तपी दुपहरी हो गई,असहनीय अब धूप |
लकड़ी-चोरों ने किया, सामंजस्य प्रदूप||
भरी दुपहरी ना मिली , ढूंढ-ढूढकर छांव |
निजीस्वार्थ ने कर दिया,वृक्षहीन हर ठांव||
रेखा सी नदिया हुई,शुष्क तलैया-ताल |
तपी दोपहर में हुआ,जन-जीवन बेहाल||
सर पर सूरज तप रहा,भ्रूभंगिम कर आज |
वृक्ष काटने का मिला, कठिन दण्ड यह'राज'||
- डा.राज सक्सेना
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बहुत अच्छा लगी ये त्वरित रचना
जवाब देंहटाएंसादर
धन्यवाद यशोदा जी | आभारी हूँ |
हटाएंबहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
जवाब देंहटाएंआपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टि की चर्चा आज सोमवार (01-07-2013) को प्रभु सुन लो गुज़ारिश : चर्चा मंच 1293 में "मयंक का कोना" पर भी है!
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
आभार सहित धन्यवाद|
हटाएंबढ़िया है आदरणीय-
जवाब देंहटाएंआभार
धन्यवाद,कृपा बनाए रखें |
जवाब देंहटाएंतपती दुपहरी जैसे खरी खरी बात कहते दोहे बहुत बढ़िया आपको बधाई राज जी
जवाब देंहटाएंतपती दुपहरी जैसे खरी खरी बात कहते दोहे बहुत बढ़िया आपको बधाई राज जी
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
जवाब देंहटाएंआपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टि की चर्चा आज मंगलवार (02-07-2013) को "कैसे साथ चलोगे मेरे?" मंगलवारीय चर्चा---1294 में "मयंक का कोना" पर भी है!
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर दोहे राज जी !
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सुंदर सृजन के लिए बधाई हो
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