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सोमवार, 16 अप्रैल 2018

भारतीय धर्म, दर्शन राष्ट्र -संस्कृति के विरुद्ध उठती नवीन आवाजें व उनका यथातथ्य निराकरण ---पोस्ट--नवम --डा श्याम गुप्त


                            

भारतीय धर्म, दर्शन राष्ट्र -संस्कृति के विरुद्ध उठती नवीन आवाजें व उनका यथातथ्य निराकरण ---पोस्ट--नवम --डा श्याम गुप्त
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----पूर्वा पर ----
                          आजकल हमारे देश में गोंड आदिवासी दर्शन और बहुजन संस्कृति व महिषासुर के नाम पर एक नवीन विरोधी विचारधारा प्रश्रय पा रही है जिसे महिषासुर विमर्श का नाम दिया जारहा है | जिसमें जहां सारे भारत में समन्वित समाज की स्थापना के साथ धर्मों व प्राचीन जातियों आदि का अस्तित्व नहीं के बरावर रह गया था, अब असुर, नाग, गोंड आदि विभिन्न जातियों वर्णों को उठाया जा रहा है |
भ्रामक विदेशी ग्रंथों आलेखों में आर्यों को भारत से बाहर से आने वाला विदेशी बताये जाने के भारत में फूट डालने वाले षडयन्त्र से भावित-प्रभावित वर्ग द्वारा इंद्र, आदि देवों को आर्य एवं शिव व अन्य तथाकथित असुर व नाग, गोंड आदि जातियों भारत की मूल आदिवासी बताया जा रहा है | वे स्वयं को हिन्दू धर्म में मानने से भी इनकार करने लगे हैं |
-----------------विभन्न आलेखों, कथनों, प्रकाशित पुस्तकों में उठाये गए भ्रामक प्रश्नों व विचारों, कथनों का हम एक एक करके उचित समाधान प्रस्तुत करेंगे जो ४० कथनों-समाधानों एवं उपसंहार के रूप में प्रस्तुत किया जाएगा, विभिन्न क्रमिक आलेख-पोस्टों द्वारा |

-------पोस्ट नवम---- कथन ३५ से ३९ तक---


कथन ३५-- 
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        संभूशेक और गणपति कोई एक व्यक्ति नहीं हैं। गोंडी पूनेम दर्शन में अट्ठासी संभुशेकों का उल्लेख है। इसी तरह ऋग्वेदिक व पौराणिक उल्लेखों में बहुत सारे गणेश या गणपति पाए जाते हैं। ये दोनों चरित्र असल में व्यक्ति नहीं बल्कि पदवियां हैं| इसी से एक अन्य गहरा संकेत मिलता है वो ये कि संभूशेक और गणपति का महादेव और विघ्नहर्ता के रूप में बचे रहना असल में व्यक्तियों का नहीं बल्कि संस्थाओं का बचे रहना है।
       संभू शेक शब्द संभू मा-दावके रूप में भी जाना जाता है। संभू मा-दावका अर्थ है संभू हमारा पिता। डॉ. कंगाली के अनुसार यही संभू मा-दाव बाद में ब्राह्मणों का शंभू महादेवबन जाता है। ऐसे अट्ठासी संभू  शेक हुए हैं जिनके अलग अलग नाम हैं। ये सभी अपनी पत्नियों के साथ बतलाये गए हैं और इनके कुछ नाम इस प्रकार हैं: संभू-मूला,संभू-गोंदा,संभू-मूरा,संभू-सैया,संभु-गवरा इत्यादि। यहाँ अंतिम तीन नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। जो इस प्रकार हैं संभू-सती, संभू-गीरजा
       संभूशेक श्रृंखला में संभू-पार्बती अंतिम जोड़ी थी और इन्ही के दौर में एशिया माइनर के विदेशी आर्यों ने हमला करना शुरू किया था। संभूशेक को कूटनीति से अपने वश में करने हेतु आर्यों ने दक्ष कन्या पार्वती को इस्तेमाल किया। उसे अनेक प्रकार के नशीले द्रव्यों का आदि बनाया गया। भोले संभू आर्यों की कूटनीति को समझ नहीं पाए। संभू शेक पार्वती के मोहजाल में फंसकर सुप्त अवस्था में पहुँच गए– (Kangali 2011:14)[25].
        संभुशेक एक सिद्ध योगी और महाशूरवीर योद्धा थे जिनकी अनुमति से कोई भी उनके प्रदेश में दाखिल नहीं हो सकता था। उन्हें हराने के लिए आर्यों ने दक्ष पुत्री पार्वती को भेजा लेकिन वह पार्वती स्वयं ही संभुशेक की शिष्या बन गयी। इसी समय कोयवंशी गोंडों और आर्यों में भयानक युद्ध चल रहा था जिसमे आर्यों को कड़ी टक्कर मिल रही थी। युद्ध के किसी मोड़ पर आर्यों के प्रतिनिधि इंद्र ब्रह्मा और विष्णु मिलकर गोंडों के प्रतिनिधि संभुशेक के सामने समझौते का प्रस्ताव लेकर जाते है।
समाधान ३५---
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           एक तरफ कहा जाता है कि गोंडी नेता शंभू-पार्वती अंतिम जोड़ी थी दूसरी ओर आर्यों ने दक्ष कन्या पार्वती को भेजा | यह पूरी तरह से भ्रामक विचार व तथ्यों की प्रस्तुति है | पार्वती दक्ष पुत्री नहीं अपितु हिमवान की पुत्री थी,शिव की द्वितीय पत्नी |  प्रथम पत्नी दक्ष कन्या सती थी | ये सारी घटनाएँ शिव के कैलाश पर चलेजाने के बाद की हैं| अर्थात समाधान ३४ में स्पष्ट किया गया मानव जाति का महासमन्वय के पश्चात की बातें हैं| कथित समझौते के प्रस्ताव की बात भी इसी और इंगित करती है |
    यदि शम्भू सेक सिद्ध योगी थे तो वे आर्यों की कूटनीति क्यों नहीं समझ पाए, पार्वती के जाल में व नशीले दृव्यों में कैसे फंस गए | वस्तुतः ये सब झूठी कपोल कल्पित बातें हैं | शिव महान योगी थे एवं कुशल योद्धा के साथ महान आपसी समन्वयक जैसा हम पहले ही बता चुके हैं|
     यह कोई नयी बात नहीं है, शंभू सेक या शिव, गणेश-गणपति पद व संस्थाएं ही रही हैं वैदिक समाज में भी गण व गणपति थे | इसी प्रकार इंद्र भी एक पदवी है, ये संस्थाएं हैं, ब्रह्मा, मनु, प्रजापति आदि की भाँति.. भारतीय समाज के उन्नत होने के साथ साथ की अवस्थाएं हैं | 
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कथन ३६--- 
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एक त्यौहार जो खडेयारा पंदुम या गढ़ पूजाया मेघनाद पूजा कहलाता है। इस त्यौहार के बारे में गोंडी मान्यता है कि मेघनाद रावण (कोयावंशी गोंडों के रावेन) के प्रतापी पुत्र थे जो दाई कली कंकाली के भक्त थे और निशस्त्र होकर एकांत में उनकी पूजा करते थे। इसी पूजा के दौरान राम और लक्षण नामक आर्य योद्धाओं ने उन्हें छलपूर्वक मारा था। यह कथा ब्राह्मणी हिन्दू साहित्य में भी पायी जाती है जिसपर वे गर्व करते हैं। आज भी गोंड समुदाय के गीतों में पूरी घटना दोहराई जाती है। हिन्दू मिथकों में भी जिस प्रकार से रावण का वर्णन है वह शिव अर्थात संभूशेक के महान भक्त बताये गए हैं और उनके चक्रवर्ती पुत्र मेघनाद कली कंकाली का रूप मानी जाने वाली महाकाली के भक्त हैं।  

समाधान ३६ ----
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        रावण असुर नहीं था अपितु ऋषिपुत्र व ब्राह्मण था वह असुरों के पराभव के बहुत बाद में हुआ था |   जब सारे असुर हार कर पाताल में चले गये उसके बहुत वर्षों बाद राक्षस राज रावण ने पुनः दैत्यों व असुरों को एकत्र करना प्रारम्भ किया था परन्तु वे सब भी आपस में युद्ध रत थे |हाँ रावण महादेव का व मेघनाद देवी के महान भक्त थे|
      यदि उसे गोंड–रावेन का वंशज व समकालीन  माना जाय तो स्वयं गोंड लोग भारत के आदि-आदिवासी नहीं ठहरते | घटना सही है परन्तु उसका गोंडों के सम्बन्ध से कुछ लेना देना नहीं है | 

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कथन-३७----
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प्राचीन हड़प्पा की सील में सात देव और संभुशेक सहित अन्य टोटम
समाधान-३७----
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 ---वास्तव में यह मातृसत्तात्मक दृश्य है जिसमें  शंभू सेक ( या आदि शिव) आदि-मातृशक्ति के सम्मुख नत व भेंट प्रदान करते दिखाया गया है उनके पीछे उनका वाहन वृषभ नंदी है एवं सामने आदिशक्ति के रक्षक-कृतित्वकारिका रूप सप्त-मातृकाएं हैं |
कथन-३८ ----
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         अब इतने विमर्श और विश्लेषण के बाद असुरों (मूलनिवासियों/आदिवासियों), कोयवंशीय गोंडों, बौद्धों कबीरपंथियों और रैदासियों में एक दार्शनिक एकता स्थापित हो जाती है। इस बात को न सिर्फ भारतीय दर्शन, रहस्यवाद या मिथक के जरिये बल्कि समाज क्रान्ति की जमीनी लड़ाइयों के मद्देनजर भी समझा जा सकता है।
        जिन लोगों ने आधुनिक समय में ऐसे सामाजिक आंदोलनों को समझने का प्रयास किया है वे भी बहुत स्पष्टता से बतलाते हैं कि कबीर असल में बुद्ध की ही क्रान्ति परम्परा में हैं। मध्य प्रदेश के मालवा निमाड़ क्षेत्र में कबीरपंथ का गहराई से अध्ययन करने वाली प्रोफेसर लिंडा हेस ने स्पष्ट किया है कि कबीर की वेद विरुद्ध क्रान्ति असल में बुद्ध की क्रान्ति से अनिवार्य रूप से जुडती है --- Hess, 2002)। इसी तरह गेल ओमवेट भी बतलाती हैं कि अन्य स्कालर्स ने जो काम किया है, जैसे कि एलियानोर जोलियेट और ए. एच. सालुंखे, उनकी रिसर्च आगे चलकर चोखामेला और तुकाराम को भी विद्रोही बौद्ध क्रान्ति के अधिक नजदीक बतलाती है।
     आचार्य मेधार्थी की प्रस्तावना यह थी कि संत धर्म इस देश का मूल धर्म था जो कि समता सहयोग और बंधुत्व पर आधारित था प्राचीन काल में जिसे सनातन धर्म कहा जाता है वह असल में संत धर्म था। इस तर्क से चलते हुए वे आगे बौद्ध धर्म के साथ संत धर्म की एकता सिद्ध करने का प्रयास करते हैं और इस क्रम में वे ये भी कहते हैं कि बुद्ध ने जीवन भर जो भी सिखाया वो असल में संत धर्म की ही शिक्षाएं थी
    इस प्रकार अंबेडकर के पूर्व भी अछूत और मूलनिवासी चिंतकों में बौद्ध धर्म के प्रति एक स्वागत का भाव निर्मित हो चुका था इसीलिये डॉ. अंबेडकर द्वारा 14 अक्टूबर 1956 को बौद्ध धर्म के स्वीकार का इतना व्यापक असर हुआ, कानपूर में न केवल कईयों ने बौद्ध धर्म को अपनाया और भविष्य में आजीवन बुद्ध के सन्देश के लिए समर्पित हो गए, बल्कि उन्होंने हिन्दू धर्म के देवी देवताओं को भी 22 मंदिरों से निकाल बाहर किया और उन्हें बुद्ध के मंदिरों में रूपांतरित कर दिया (Linch, 1969)इसीलिये कई दलित चिन्तक रविदास को बौद्ध धर्म से प्रेरित संत बतलाते हैं (Zelliot Mokashi-Punekar 2005)
    इसीलिये रविदास और कबीर को आधार बनाकर बुद्ध के चिन्तन में आश्रय पाने वाली धाराएं अंततः बुद्ध को ही रविदास और कबीर की क्रान्ति का स्त्रोत सिद्ध करती हैं और बुद्ध के इस लोकवादीदर्शन को महिमामंडित करती हैं।
समाधान ३८---- 
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         ये सारे विदेशी शोधकर्ता ही जड़ हैं सारे फसाद की,  झूठ व निरर्थक शोध जिनके बारे में वे कभी जान ही नहीं सकते उनके बारे में भ्रामक तथ्यों को दिखाकर  हिन्दू सनातन धर्म को तोड़ने की साज़िश के -- --------अंग्रेज़ी की गुलामी परम्परा के वाहक ये लोग अब भी उन्हें अपना आका मानते हैं |
------जब कबीर- झीनी झीनी बीनी रे चदरिया.. कहते है,...एक तत्व गुण तीनी रे...तो वे औपनिषदिक तत्वज्ञान, वैदिकज्ञान पर कह रहे होते हैं | जब रैदास –गाते हैं—प्रभुजी तुम चन्दन हम पानी ---तो वे भौतिकवाद नहीं ईश्वरवाद की बात कर रहे होते हैं| संत कवि सभी ईश्वरीय वेदान्त परम्परा के हैं नकि लोकायत, अनीश्वरवादी परम्परा के

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कथन-३९---
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        अब हम महिषासुर आन्दोलन और इसके साथ आरम्भ हुए मिथकीय पुनर्पाठ को उसके व्यापक और सही सन्दर्भ में देख सकते हैं। महिषासुर आन्दोलन ऊपर बतलाई गयी विराट दलदल में सतह पर नजर आने वाला एक महत्वपूर्ण सबूत है जिसके सहारे अन्य सभी परम्पराओं के उदविकासीय संघर्ष और षड्यंत्रों को भी देखा जा सकता है। 
-------अभी तक जो साक्ष्य और तथ्य महिषासुर के संबंध में हैं वे मूलतः मिथकीय विवरणों और बंगाल, उड़ीसा, झारखंड इत्यादि में फैले मूलनिवासी व असुर समुदाय की लोक कहावतों और किंवदंतियों सहित उनके पूजा विधानों के विश्लेषण पर आधारित हैं। यह एक महत्वपूर्ण बात है। ----------इसका यह अर्थ हुआ कि आज भी छोटा नागपुर के असुरों में या उत्तरप्रदेश के महोबा जिले के महिषासुर मंदिर के आसपास के या छतीसगढ़ और झारखंड के अनेक मूलनिवासी समुदायों में महिषासुर एक सच्चाई हैं। 
--------महिषासुर न केवल इनके लिए एक प्रतापी राजा, पूर्वज और मिथकीय चरित्र हैं बल्कि वे एक महाशक्तिशाली शूरवीर भी रहे हैं। कई जनजातीय समाजों में आज भी महिषासुर की पूजा की जाती है। झारखंड के असुर स्वयं को महिषासुर का वंशज मानते हैं और महिषासुर सहित, मेघनाद, रावण और अन्य असुर  माने जाने वाले वीरों की पूजा करते हैं।
समाधान-३९---
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        निश्चय ही जैसे आज भी कुछ लोग पाकिस्तान भक्त देशद्रोही मुस्लिमों, सेना पर पत्थर फैंकने वाले जम्मू-कश्मीरियों, रूस-चीनी भक्त कम्युनिस्टों की प्रसंशा करते दिखाई देते हैं वैसे ही यह भी है आज भी महिषासुर, रावण,मेघनाद आदि की पूजा करते हुए दिखाई देते हैं तो कोइ आश्चर्य की बात नहीं | वीर तो वे थे ही परन्तु भटके हुए | कुछ न कुछ को हारने या नष्ट होने वाली पार्टी के पक्षधर होते ही हैं, इससे उनके कार्य उचित थोड़े ही होजाते हैं |


  -------------क्रमश पोस्ट १०------ उपसंहार ----------

3 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (17-04-2017) को "सबसे बड़े मुद्दा हमारे न्यूज़ चैनल्स" (चर्चा अंक-2944) पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (18-04-2017) को "सबसे बड़े मुद्दा हमारे न्यूज़ चैनल्स" (चर्चा अंक-2944) पर भी होगी।
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    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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