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शनिवार, 5 अप्रैल 2014

ईशोपनिषद के द्वितीय मन्त्र .... के प्रथम भाग ... ' कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतम समा |.... का काव्य-भावानुवाद .... डा श्याम गुप्त.....



ईशोपनिषद के द्वितीय  मन्त्र ....
                                  कुर्वन्नेवेह कर्माणि  जिजीविषेच्छतम समा|
                                     एवंत्वयि नान्यथेतो S स्ति न कर्म लिप्यते नरे ||'
 के प्रथम भाग ...  '  कुर्वन्नेवेह कर्माणि  जिजीविषेच्छतम समा |.... का काव्य-भावानुवाद ....
ईश्वर भाव व त्याग भाव से,
लालच लोभ रिक्त हो हे मन |
कर्म करे परमार्थ भाव से,
उसको ही कहते हैं जीवन |

क्या जीने की हक़ है उसको ,
जो न कर्म रत रहता प्राणी |
क्या नर जीवन देह धरे क्या ,
अपने हेतु जिए जो प्राणी |

सौ वर्षों तक जीने की तू,
इच्छा कर, पर कर्म किये जा |
कर्म बिना इक पल भी जीना ,
क्या जीना मत व्यर्थ जिए जा |

श्रम कर, आलस व्यसन त्यागकर ,
देह वासना मोह त्याग कर |
मनसा वाचा कर्म करे नर,
मानुष जन्म न व्यर्थ करे नर |

कर्मों से ही सदा भाग्य की,
रेखा बिगड़े या बन जाये |
शुभ कर्मों का लेखा हो तो,
रेखा स्वयं ही बनती जाए |

तेरे सदकर्मों की इच्छा,
ही है शत वर्षों का जीवन |
मानव सेवा युत इक पल भी,
है शत शत वर्षों का जीवन ||

                                         ---क्रमश द्वितीय भाग....

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