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शनिवार, 13 अक्तूबर 2018

पिता ...डा श्याम गुप्त



पिता
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एक पिता
झेलता है कितने झंझावात,
संसार के द्वेष-द्वन्द्व, छल-छंद;
भरने हेतु
समाज के सरोकार |
करने हेतु,
सात बचनों की पूर्ति
परिवार की आशाओं
पत्नी की इच्छाओं,
संतान की सुख अभिलाषाओं
व उनका भविष्य संवारने,
के लिए खटता है दिन-रात चुपचाप ,
बिना किसी शिकायत के, संताप के |
जीवन के स्वर्णिम पल-छिन,
युवावस्था के सुहाने दिन
उड़ जाते हैं न जाने कब
अधिकाधिक कमाने में,
आश्रितों को आनंद प्रदान हेतु
करता है सर्वस्व न्योछावर,
बनकर एक पुत्र, भाई, पति, पिता |
खुश होता है पिता,
सफल हुआ उसका श्रम, त्याग
उसकी शिक्षा |
बच्चे जब बड़े होकर ,
जाते हैं देश-विदेश, उच्च शिक्षा हेतु
बनाते हैं अपना भविष्य,
सजाते हैं अपना स्वयं का संसार |
पर जब वे,
अपनी सभ्यता, संस्कृति को भुलाकर ,
पाश्चात्य रंग में रंग जाते हैं ।
विस्मृत कर देते हैं,
परिवार को, माता-पिता को;
उस पिता को जिसने
उसे जीवन का अर्थ दिया
जीवन जीने का अर्थ दिया
जीवन जीने का सामर्थ्य दिया ,
तब उसकी आन्तरिक पीड़ा को समझना,
अनुभव करना
किसके वश के बात है ?



चित्र-गूगल साभार

1 टिप्पणी:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (15-10-2018) को "कृपा करो अब मात" (चर्चा अंक-3125) पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    राधा तिवारी

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