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शुक्रवार, 28 अगस्त 2015

संथारा -- कायरतापूर्ण आत्महत्या है ---ड़ा श्याम गुप्त

संथारा -- कायरतापूर्ण आत्महत्या है ---ड़ा श्याम गुप्त

                        

             बात अन्न जल त्यागने की संथारा की है तो आत्मा के रूप में शरीर में ब्रह्म के उपस्थिति मानी जाती है , शरीर को स्वयं पिंड अर्थात ब्रह्माण्ड का ही रूप माना जाता है | कोई भी ज्ञानी से ज्ञानी नहीं जानता कि मृत्यु कब निश्चित है , अतः अन्न जल छोड़कर तिल तिल कर शरीर को मारना एवं आत्मा को कष्ट देना एवं शरीर को जान  बूझकर अक्षम बनाते जाना , अकर्मण्यता, कायरता, कर्म से दूर भागने का चिन्ह है , वीरों का कृत्य नहीं | वीरों का कृत्य तो स्वस्थ्य शरीर के होते हुए  तुरंत जल समाधि लेलेना या भूमि समाधि लेना है |
                     अतः हाईकोर्ट का निर्णय उचित ही है | राजनीतिक या जन दबाव में अथवा उच्चतम न्यायालय से कुछ भी निर्णय हो, परन्तु संथारा निश्चय ही अमानवीय, कायरतापूर्ण कृत्य है, आत्महत्या है | जैन समाज आत्ममंथन करे , यह उचित अवसर है अपने पंथ को नवीनता देने का || घिसे पिटे तथ्यों परम्पराओं पर घिसटकर न चलता रहे |

राखी का त्यौहार....ड़ा श्याम गुप्त.....



राखी का त्यौहार....ड़ा श्याम गुप्त.....
                                                        

भाई और  बहन का प्यार कैसे भूल जायं,
बहन ही तो भाई का प्रथम सखा होती है |
भाई ही तो बहन का होता है प्रथम मित्र,
बचपन की यादें कैसी मन को भिगोती हैं |
बहना दिलाती याद,ममता की माँ की छवि,
भाई में बहन, छवि पिता की संजोती है  |
बचपन महकता ही रहे सदा यूंही श्याम ,
बहन को भाई, उन्हें बहनें  प्रिय होती हैं  ||

भाई औ बहन का प्यार दुनिया में बेमिसाल,
यही प्यार बैरी को भी राखी भिजवाता है |
दूर देश  बसे  , परदेश या  विदेश में हों ,
भाइयों को यही प्यार खींच खींच लाता है |
एक एक धागे में बसा असीम प्रेम बंधन,
राखी का त्यौहार रक्षाबंधन बताता है |
निश्छल अमिट बंधन, श्याम'धरा-चाँद जैसा ,
चाँद  इसीलिये  चन्दामामा  कहलाता है ||

रंग विरंगी सजी राखियां कलाइयों पर,
देख  देख भाई  हरषाते  इठलाते  हैं  |
बहन जो लाती है मिठाई भरी प्रेम-रस ,
एक दूसरे को बड़े प्रेम से खिलाते हैं |                                                 दूर देश बसे जिन्हें राखी मिली डाक से,
 बहन की ही छवि देख देख मुसकाते हैं |                                            अमिट अटूट बंधन है ये प्रेम-रीति का,                                               सदा बना रहे श्याम ' मन से मनाते हैं ||


गुरुवार, 27 अगस्त 2015

सृष्टि-महाकाव्य --बिगबेंग या ईषत - इच्छा -एक अनुत्तरित उत्तर.-सर्ग-२.... डा श्याम गुप्त....

  महाकाव्य ---सृष्टि --बिगबेंग या ईषत - इच्छा -एक अनुत्तरित उत्तर.-सर्ग-२ ....उपसर्ग..

               सृष्टि -सृजन के आधुनिक वैज्ञानिक, वैदिक एवं दार्शनिक-आध्यात्मिक तथ्यों का समन्वित विवेचन द्वारा उत्तर की खोज विषयक यह महाकाव्य ११ सर्गों में विरचित है | इस महाकाव्य हेतु मैंने अगीत विधा का एक विशिष्ट नवीन छंद की सृष्टि की है जिसे मैंने  "लयबद्ध षटपदी अगीत छंद"  का नाम दिया है इसे हम इसे क्रमिक रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं  |  प्रस्तुत है द्वितीय  सर्ग - उपसर्ग ....

 

 

 


    

(यह महाकाव्य अगीत विधा में आधुनिक-विज्ञान ,दर्शन व वैदिक विज्ञान के समन्वयात्मक विषय पर सर्वप्रथम रचित महाकाव्य है, इसमें सृष्टि की उत्पत्ति, ब्रह्माण्ड व जीवन व मानव की उत्पत्ति के गूढ़तम विषय को सरल भाषा में व्याख्यायित किया गया है ....एवं अगीत विधा के लयबद्ध षटपदी छंद में निवद्ध किया गया है जो एकादश सर्गों में वर्णित है.... रचयिता )


सृष्टि -अगीत विधा महाकाव्य-

रचयिता----डा.श्याम गुप्त.....प्रकाशक---अखिल भा.अगीत परिषद् ,लखनऊ.
               अगीत विधा में ब्रह्माण्ड  की रचना एवं जीवन की उत्पत्ति  के वैदिक, दार्शनिक व आधुनिक वैज्ञानिक तथ्यों का विवेचनात्मक प्रबंध-काव्य
( छंद ----लय बद्ध,षटपदी अगीत छंद ---छह पंक्ति, १६ मात्रा प्रत्येक पंक्ति में, अतुकांत, लय-वद्ध )


सृष्टि महाकाव्य--द्वितीय सर्ग... -उपसर्ग -( प्रस्तुत सर्ग में आज की स्वार्थपरकता से उत्पन्न अभिचार, द्वंद्व,अशांति क्यों है मानव ने ईश्वर को क्यों भुला दिया है एवं उसके क्या परिणाम हो रहे हैं और सृष्टि जैसे दार्शनिक विषयको कोई क्यों जाने-पढ़े इस पर विवेचन किया गया है )
.
नर ने भुला दिया प्रभु नर से,
ममता बंधन नेह समर्पण;
मानव का दुश्मन बन बैठा ,
अनियंत्रित वह अति-अभियंत्रण।
अति सुख अभिलाषा हित जिसको,
स्वयं उसी ने किया सृजन था।।
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निजी स्वार्थ के कारण मानव,
अति दोहन कर रहा प्रकृति का;
प्रतिदिन एक ही स्वर्ण अंड से,
उसका लालच नहीं सिमटता;
चीर कलेजा, स्वर्ण खजाना,
पाना चाहे एक साथ ही।।
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सर्वश्रेष्ठ है कौन?, व्यर्थ ,
इस द्वंद्व भाव में मानव उलझा;
भूल गया है मानव ख़ुद ही ,
सर्वश्रेष्ठ कृति है, ईश्वर की ।
सर्वश्रेष्ठ, क्यों कोई भी हो ,
श्रेष्ठ क्यों न हों,भला सभी जन।।
.
पहले सभी श्रेष्ठ बन जाएँ,
आपस के सब द्वंद्व मिटाकर;
द्वेष,ईर्ष्या, स्वार्थ भूलकर,
सबसे समता भाव निभाएं;
मन में भाव रमें जब उत्तम,
प्रेम भाव का हो विकास तब।।
.
जन संख्या के अभिवर्धन से,
अनियंत्रित यांत्रिकी करण से;
बोझिल बोझिल मानव जीवन।
भार धरा पर बढ़ता जाता,
समय-सुनामी की चेतावनि,
समझ न पाये,प्रलय सुनिश्चित।

.
जग की इस अशांति क्रंदन का,
लालच लोभ मोह बंधन का;
भ्रष्ट- पतित सत्ता गठबंधन,
यह सब क्यों? इस यक्ष प्रश्न(१) का,
एक यही उत्तर, सीधा सा,
भूल गया नर आज स्वयं को।।
.
क्यों मानव ने भुला दिया है,
वह ईश्वर का स्वयं अंश है;
मुझमें तुझमें शत्रु मित्र में;
ब्रह्म समाया कण-कण में वह|
और स्वयं भी वही ब्रह्म है,
फ़िर क्या अपना और पराया।।
.
सोच हुई है सीमित उसकी,
सोच पारहा सिर्फ़ स्वयं तक;
त्याग, प्रेम उपकार-भावना,
परदुख,परहित,उच्चभाव सब ;
हुए तिरोहित,सीमित है वह,
रोटी कपडा औ मकान तक।।  
.
कारण-कार्य,ब्रह्म औ माया(२)
सद-नासद(3) पर साया किसका?
दर्शन और संसार प्रकृति के ,
भाव नहीं अब उठते मन में;
अन्धकार- अज्ञान- में डूबा,
भूल गया मानव ईश्वर को।।
१०.
सभी समझलें यही तथ्य यदि,
हम एक बृक्ष के ही फल हैं;
वह एक आत्म-सत्ता, सबके,
उत्थान-पतन का कारण है;
जिसका भी बुरा करें चाहें,
वह लौट हमीं को मिलना है।।
११.
हम कौन?,कहाँ से आए है?
और कहाँ चले जाते हैं सब?
यह जगत-पसारा कैसे,क्यों?
और कौन? समेटे जाता है।
निज को,जग को यदि जानेंगे,
तब मानेंगे, समता भाव ।।
१२.
तब नर,नर से करे समन्वय ,
आपस के भावों का अन्वय;
विश्व-बंधुत्व की अज़स्र धारा;
प्रभु शीतल करदे सारा जग,
सारा हो व्यापार सत्य का,
सुंदर, शिव हो सब संसार ॥

{ (
१)=ज्वलंत समस्या का प्रश्न ; (२)=वेदान्त दर्शन का द्वैत वाद -ब्रह्म व माया, दो सृजक-संचालक शक्तियां हैं; (३)=ईश्वर व प्रकृति -हैं भी और नहीं भी ( नासदीय सूक्त -ऋग्वेद )
                     ----क्रमश:--सर्ग तीन--









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