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शनिवार, 24 अगस्त 2013

श्याम स्मृति .......यह भारत देश है मेरा .......डा श्याम गुप्त...



                               श्याम  स्मृति .......यह भारत देश है मेरा .......

                 यह भारतीय धरती वातावरण का ही प्रभाव है कि मुग़ल जो एक अनगढ़, अर्ध-सभ्य,  बर्बर घुडसवार आक्रमणकारियों की भांति यहाँ आये थे वे सभ्य, शालीन, विलासप्रिय, खिलंदड़े, सुसंस्कृत लखनवी -नजाकत वाले लखनऊआ नवाब बन गए | अक्खड-असभ्य जहाजी ,सदा खड़े -खड़े , भागने को तैयार, तम्बुओं में खाने -रहने वाले अँगरेज़ ...महलों, सोफों, कुर्सियों को पहचानने लगे |
               यह वह देश है जहां प्रेम, सौंदर्य, नजाकत, शालीनता... इसकी  संस्कृति, में रचा-बसा है,   इसके जल  में घुला है, वायु में मिला है और खेतों में दानों के साथ बोया हुआ रहता है |  प्रेम-प्रीति यहाँ की श्वांस  है और यहाँ के हर श्वांस प्रेम है |
             यह पुरुरवा का, कृष्ण का, रांझे का, शाहजहां का और  ताजमहल का देश है.....|

सोमवार, 19 अगस्त 2013

अब पोते को पालती... कहानी...डा श्याम गुप्त ...



अब पोते को पालती...   कहानी  
       “अब पोते को पालती, पहले पाली पूत” ...वाह! क्या सच्चाई बयान करती कविता है |’ सत्यप्रकाश जी कविता पढकर भाव-विभोर होते कहने लगे, ’आजकल यही तो होरहा है, बच्चे माँ-बाप को आया बनाकर लेजाते हैं, रखते हैं अपनी संतान के पालन हेतु | बेचारी माँ पहले ... पुत्र-पुत्रियों को पालती रही अब इस उम्र में पोतों को; स्वयं लिए कब समय मिलेगा |’ वे क्लब-हाउस में मित्रों के साथ बैठे पत्रिकाएं आदि पढ़ रहे थे |
       ‘अरे ! क्या पोते–पोतियों को पालना स्वयं का कार्य नहीं है, ‘साथ में बैठे जोशी जी बोले, ‘वह भी तो स्वयं का कार्य ही है, अपनी संतान का | कवि भ्रमित-भाव है, अनुभव की कमी है अभी |’
          पर ठीक तो है जी, इस प्रकार अपने स्वयं के लिए समय मिला ही कब | कवि तो वर्त्तमान का यथार्थ, भोगा हुआ, देखा हुआ यथार्थ लिखता है |’, सत्यप्रकाश जी ने कहा |
          हाँ ... हाँ, वर्तमान का वर्णन तो कवि का सामयिक दायित्व है, परन्तु अनुचित भाव-कथ्य या बिना विषय की गंभीरता पर सोचे विचारे तथ्य कवि को नहीं रखने चाहिए, जैसे इस कविता में | भई, अपने लिए समय क्या ? क्या नाती-पोतों को पालना आयागीरी कहलायेगी | यह तो सदा से ही होता आया है, कोई नयी बात थोड़े ही है | पहले कभी तो यह प्रश्न नहीं उठा | सम्मिलित परिवारों में भी नाती-पोते सदा बावा-दादी ही तो पालते हैं | पुत्र- जो इस समय पिता है व घर का मुखिया रूप में है – को तो कार्य से समय ही कब मिल पाता है |  तभी तो पोते में सदा दादा के संस्कार जाते हैं | कहाबत भी है...”मूल से अधिक ब्याज प्रिय होती है |” पोते–पोतियों को पालना, खिलाना सबसे बड़ा सुख व मनोरंजन है |’ जोशी जी बोले |
            ‘परन्तु एक सच बात को लिखने में क्या बुराई है ?’
             हाँ..sss,  पर एक बुराई को दृश्यमान करने हेतु क्या आप एक अन्य सामाजिक प्रथा को बुरी बनने में सहायक होंगे ? जोशी जी बोले |
                       कैसे ?
                     ‘माँ-बाप’ को, जो स्वच्छंदता पसंद हैं, कुछ पैसा भी है या पाश्चात्य विचार-धारा से प्रभावित हैं, उनको यह सन्देश जाता है कि  अरे! जब सब मौज कर रहे हैं तो हम भी क्यों न मौज मस्ती में गुजारें ये दिन | आजकल यूं भी हर बिंदु पर–चाहे टीवी सीरियल व विज्ञापन हो, या सिनेमा, समाचार-पात्र, ट्रेवल एजेंसी के विज्ञापन आदि...सभी मौज-मस्ती कराने के विज्ञापनों से भरे रहते हैं | वे अपने लिए तो कमाने का ज़रिया, धंधे का ज़रिया ढूँढते हैं और वरिष्ठ–जनों को ललचाते रहते हैं इस उम्र में भी मौज-मस्ती –मनोरंजन हेतु, घूमने हेतु | नाती-पोतों में फंसने से बचने हेतु | यह स्थिति समाज को विभक्त करती है | पीढ़ियों के मध्य दूरी, जेनेरेशन गैप, को अधिक चौड़ा करती है | समाज में और अधिकतम कमाने की प्रवृत्ति और आपसी वैमनस्यता, विषमताके बीज फैलाती है |’ जोशी जी ने अपना कथन स्पष्ट किया |
                     ‘तो कवि क्या लिखे, पौराणिक कथाएं ?’ मेज के दूसरी ओर बैठे सुरेश जी ने वार्तालाप में भाग लेते हुए कहा तो सत्य प्रकाश जी व अन्य सब हंसने लगे |
                   ‘ हाँ, लिख सकते हैं, लिखना चाहिए’, जोशीजी भी हंस कर कहने लगे,’ परन्तु अद्यतन सन्दर्भ के साथ, आज की परिस्थितियों की विवेचना, पुरा से तुलना करके यथा-तथ्य बताना सार्थक साहित्य का दायित्व है |’
                     ‘क्या पुरा साहित्य सब सच होता है ?’ अस्थाना जी पूछने लगे |
                      ‘हो भी सकता है, परन्तु वही साहित्य इतने लंबे समय तक जीवित रहता है जो सत्य के निकट हो अथवा जो सत्य को एवं समाज हेतु आवश्यक तथ्यों को उद्घाटित करता है चाहे वह रचना में वास्तविक हो या कल्पित |   साहित्य वास्तव में है क्या, साहित्य समाज का इतिहास होता है | साहित्यिक कथाओं के पात्र सदैव समाज में होते हैं भले ही कथा में वे कल्पित हों | जैसे ये कविता, जोशीजी सत्य प्रकाश जी की ओर उन्मुख होकर कहने लगे, जो अभी आपने पढ़ी, वह भी यह बताने में तो समर्थ है ही कि आज के समाज में एसा भी सोचा जाता था, होता भी था | यदि कविता दीर्घजीवी हुई तो |’
                        ‘तो क्या जो समाचार मिल रहे हैं या मिलते हैं कि माता-पिता के साथ बेटे दुर्व्यवहार कररहे हैं....यह स्थिति उचित है या समाचार असत्य हैं |’ सत्य जी ने प्रश्न उठाया |
                       उचित कैसे कहा जा सकता है ? समाचार सत्य हो या असत्य | देखिये, दुर्व्यवहार तो श्रवणकुमार के माता-पिता के साथ भी हुआ था सतयुग में | वास्तव में आज ये घटनाएँ मूलतः स्वार्थ, अति-भौतिकता वाली धन आधारित सोच व जीवन शैली व्यवस्था के कारण हैं | मुझे लगता है अधिकाँश बच्चे सामयिक वस्तु-स्थिति के दबाव व मज़बूरी वश ऐसा करते हैं, मन ही मन वे अवश्य ही आत्म-ग्लानि व पीड़ा से ग्रस्त रहते हैं | तभी तो वे प्राय: नर्वस, चिडचिडे हो जाते हैं और इससे पति-पत्नी झगड़े..व अन्य द्वंद्वों के कारक उत्पन्न होते हैं | क्या दया, प्रेम, सांत्वना व उचित सुझाव की अधिकारी नहीं है आज की पीढ़ी ?’            
             ‘क्या आज की पीढ़ी हमारे सुझाव मानती है ?’ अस्थाना जी कहने लगे |
              ‘हाँ,यह भी एक पृथक समस्या है परन्तु वे दया, प्रेम, सांत्वना व उचित सुझाव के अधिकारी तो हैं ही |’ सत्य प्रकाश जी ने कहा |
             ‘माता-पिता भी यदि उन्हें अपने समय की दृष्टि से तौलते हुए चलाना चाहते हैं तो भी द्वंद्व बढ़ते हैं | जब तक नाती-पोते छोटे होते हैं तभी अधिक आवश्यकता होती है दादा-दादी की, परिवार की | यदि ऐसे समय पर आप उनके साथ नहीं होंगे, घूम-फिर रहे, मस्ती कर रहे होंगे, अपनी ज़िंदगी जी रहे होंगे तो और आपकी अधिक उम्र होने पर वे क्यों आपके काम आयेंगे | हाँ,आप काफी धनपति हैं तो अलग बात है|’ जोशी जी हंस कर बोले |
              अरे ! तब तो वे आपके आगे-पीछे भी लगे रहेंगे परन्तु सिर्फ स्वार्थ हेतु ...या फिर एकदम किनारा कर लेंगे |’ सुरेश जी बोले |
             ‘ जहां तक विदेश में बसे भारतीयों के माँ-बाप की बात है | वहाँ न साथी, न समाज, न कोई अपना तो आराम भी बंधन हो जाता है और मशीन की भांति पोते-पोतियों को पालना-खिलाना भी बंधन लगने लगता है | उनके स्कूल जाते ही वे नितांत अकेले होजाते हैं| किसके पास समय है उन्हें पूछने के लिए | वहाँ की कल्चर भी प्रभावित करती है व्यवहारों को, जिसे आधुनिक से आधुनिक भारतीय माँ-बाप नहीं झेल पाते | वही सब बंधन, उपेक्षा, शोषण, पीडन लगने लगता है |’ जोशी जी ने कहा |
             ‘यह सब तो अब यहाँ भी होता है |’, अस्थाना जी बोले |
            ‘सही कहा’, यह सब साहित्यकारों, कवियों व समाज शास्त्रियों को सिर्फ कहने की अपेक्षा इसका युक्ति-युक्त समाधान भी प्रस्तुत करना चाहिए |’ जोशी जी कहते जा रहे थे |
            तभी जोशी जी की पत्नी, कुसुम जी, आजाती हैं, और कहने लगीं,’ मुझे भी कहाँ समय मिलता है अपने लिए, दिन भर राघव की देखभाल में लग जाता है | एक फुल-टाइम आया भी रखी हुई है उसके लिए फिर भी |’
           ‘आपको किसलिए टाइम चाहिए ?’ जोशीजी पूछने लगे |
           ‘कथा, सत्संग, भजन-कीर्तन मंडली में मन बहलाने के लिए | वहाँ अपने शहर में तो किटी, सहेलियों, पडौसी ...आना-जाना लगा ही रहता था, सब छूट गया |’  

           वह भी एक महत्वपूर्ण काल-भाग था जीवन का, आप भोग चुके | वैसे पोते को पालने-खिलाने- बड़ा करने-पढाने-लिखाने से बड़ा कीर्तन क्या होगा | भविष्य की संतति, बाल-रूप भगवान की सेवा से बढकर क्या भजन, पूजा व दुनिया की सैर होगी ? अपने पुत्र-पुत्री पालते समय भी तो कभी कभी एसा अनुभव हुआ होगा कि क्या-क्या छूटा जारहा है जीवन में ...क्यों..|  जोशी जी ने हंसते हुए पत्नी से पूछने लगे |  
            ‘हाँ.. लगता तो था, पर दायित्व-बोध था’, कुसुम जी बोलीं, ’ आजकल के बच्चे तो अपने बच्चों को समय देने की अपेक्षा नौकरी, पार्टी, मीटिंग को अधिक समय देते हैं | यदि वे बच्चों के प्रति अपना दायित्व ठीक से निभाएं, कुछ ऐसा रहे कि वे भी अपने बच्चों को और अधिक समय दें तो दादा-दादी को अखरेगा नहीं, दिन भर जुटना नहीं पडेगा| उन्हें भी स्पेस चाहिए | संयुक्त परिवार की भांति घर में ही दायित्व निर्वहन के साथ–साथ खेल-कूद, पार्टी, मनोरंजन सब करें |’
            ‘पर वह तो संयुक्त परिवार की बात है | वहाँ तो दायित्व व कार्य का विभाजन होजाता है | पर यहाँ आजकल तो पति-पत्नी दोनों ही काम पर जाते हैं अन्यथा परिवार की आय कैसे बढ़ेगी | पत्नियां भी व्यावसायिक व्यस्तता के चलते घर व बच्चों पर कम समय दे पाती हैं| ‘ जोशीजी ने कहा |
           ‘हाँ, यही तो सच है आज का, अधिक और अधिक कमाई, अर्थ-युग की मेहरबानी |’ कुसुम जी कहने लगीं,’ जिन बच्चों के माँ-बाप नहीं है पोतों की देखभाल हेतु, या नहीं उपलब्ध हैं किसी कारण वश, वे आया रखते हैं बच्चों के लिए |  आया पर जहां सिर्फ दस हज़ार खर्च होते हैं तो पत्नी पचास हज़ार कमाकर लाती है |’
           हूँ, जोशी जी बोले,’ अर्थ लाभ तो है ही, परन्तु बच्चों का भाग्य...जो बच्चे पचास हज़ार की क्षमता वाली से पलने चाहिए व दस हज़ार वाली से पल रहे हैं | सब हंसने लगे तो वे पुनः कहने लगे, ‘‘मैं समझता हूँ ऐसे में जो बावा-दादी अपने पोते-पोतियों को पाल रहे हैं वे बहुत बड़े सामाजिक, साथ ही साथ राष्ट्रीय व मानवीय दायित्व का निर्वहन कर रहे हैं |’
          ‘बहुत से बच्चे बावा-दादी के होते हुए भी बच्चे के लिए आया रखते हैं ताकि उन्हें अधिक कष्ट न हो |’ सुरेश जी ने कहा |
          ‘ पर आया, उन्हें लिफ्ट कहाँ देती है | स्वयं को मेम-साहब की अनुपस्थिति में मालकिन समझती है| वह तो बावा-दादी को ही बच्चे पालना सिखाने लगती है | कभी-कभी बच्चों की दुर्गति देखकर उन्हें और अधिक कष्ट होता है | शिशुगृहों ( क्रेच ) में भी बच्चे पलते हैं परन्तु वहाँ के हालात सब जानते हैं| भई ! असली-नकली में अंतर तो होता ही है |’  जोशी जी ने कहा |
           ‘रोने गाने से क्या लाभ ? सत्यप्रकाश जी कहने लगे, ’न आप कुछ कर पाते हैं न हम |’ यह युग चलन है | नाती-पोते खिलाते रहो, पुण्य कमाते रहो, समय मिले कविता पढते रहो, गुनगुनाते-गाते रहो, मस्त रहो |’ सत्य प्रकाश जी ने जैसे अपना निर्णय सुनाया |
            ‘ सच है, पर कवि को तो कविता में दुविधा-भाव वाले तथ्यों व अनुचित बात पर तूल देने की अपेक्षा समस्या का समाधान भी देना चाहिए न |’ कहकर जोशी जी हंसने लगे |

            
 
      

   

बुधवार, 14 अगस्त 2013

गुरुवार, 8 अगस्त 2013

भाइयो मिलकर मनाओ ईद..........प्रतुल वशिष्ठ





भाइयो मिलकर मनाओ ईद
दिल में न रह जाए कसक और फिकर
गर गरीबी में दबा हो कोई बन्दा
बाँट फितरा दिखा उसको भी जिगर
पर न जिन्दा जनावर को मार
मुर्दा खा ना बन्दे कर परिंदे बेफिकर
दर और दरिया मान सबका
मौहब्बत का सब बराबर सब बराबर

ज़र और जोरू है सलामत
ख़ुद की व औरों की, रख पाक अपनी भी नज़र
सरहद हिंद पर मरने का ज़ज्बा पाल
कर दे दुश्मनों को नेस्तनाबूद और सिफर
----- तभी होगी ईद-उल-फितर। 
-प्रतुल वशिष्ठ 

बुधवार, 7 अगस्त 2013

पूजनीय प्रभु :गीतिका छंद

आदरणीय गुरुजनों मैंने पोस्ट तो तैयार कर रखी थी एक तो डालने का समय नहीं मिला दूसरा थोड़ा हिचकचा रही थी कि पता नहीं कहीं जल्दी में सब गलत ही ना हो प्रथम प्रयास है गलतियाँ इंगित कीजिए |

पूजनीय प्रभु हमारे भाव उज्जवल कीजिए| 
छोड़ देवें हर बुराई शक्ति हमको दीजिए| 
बुद्धि निर्मल कर हमारी शरण अपनी लीजिए| 
श्रद्धा से सर झुकाएं भक्ति का दान दीजिए ||

ईश्वर निराकार है  महीमा अपरमपार है |
शरण में जो आते हैं उनका बेड़ा पार है |
तेरी दिव्य शक्तिओं का भरा हुआ भँडार है| 
सूर्य चाँद और तारों का तेज बरक़रार है || 
.......................

मंगलवार, 6 अगस्त 2013

हे प्रभु!--गीतिका व हरिगीतिका छंद ...डा श्याम गुप्त ...

                                       गीतिका व हरिगीतिका छंद
( ---- चार दिन से किसी  ने हरिगीतिका छंद की कोइ पोस्ट नहीं डाली....तो मैंने सोचा मैं ही पोस्ट कर देता हूँ |)

गीतिका छंद --- भी हरिगीतिका की ही भांति चार पदों वाला सममात्रिक व चारों पद सम् तुकांत या दो दो पद सम तुकांत वाला छंद  होता है इसमें प्रत्येक पद में २६ मात्राएँएवं अंत में लघु -गुरु या लघु-लघु होता है |

 उदाहरण----- प्रसिद्द प्रार्थना है -- जो सभी ने स्कूल में गायी  होगी .......

हे प्रभो आनंददाता ज्ञान हमको दीजिये |
शीघ्र सारे दुर्गुणों को दूर हमसे कीजिये |
लीजिये हमको शरण में हम सदाचारी बनें |
ब्रह्मचारी धर्म रक्षक वीर व्रत धारी बनें |


मेरे गीतिका व हरिगीतिका छंद -------

                         हे प्रभु !

              ---हरिगीतिका ...में ...
हे प्रभु! हमारे जन्मदाता प्राणत्राता आप हो |  = २८ मात्रा ...I S
हैं अल्पज्ञानी हम मनुज सब ज्ञान दाता आप हो |
भूलें विषयरत आपको हम आप मत बिसराइये|
हो कृपा सागर यदि प्रभो तो कृपा ही बरसाइये ||

हे नाथ ! इस संसार के हो आपही कारन करन |    =  २८ मात्रा...III
सब जग कृपा से आपकी ही, आपही तारन तरन |
यह जगत माया आपकी ही आप नित धारन धरन|
कट जायं भवदुख नित करे यदि आपका मानव मनन ||

-------- इसे   गीतिका    में  भी लिखा जा सकता है....

प्रभु  हमारे जन्मदाता प्राणत्राता आप हो |    = २६ मात्रा , I S
अल्पज्ञानी हम मनुज सब ज्ञान दाता आप हो
भूलें विषयरत  हम प्रभो!,  आप मत बिसराइये|
 कृपा सागर  प्रभो ! हम पर  कृपा ही बरसाइये ||


 नाथ ! इस संसार के हो आपही कारन करन |    =  २६ मात्रा  ...I I
 जग कृपा है  आपकी ही, आप ही तारन तरन |
 जगत माया आपकी है  आप नित धारन धरन|
कट जायं भवदुख  यदि करे आपका मानव मनन ||








शनिवार, 3 अगस्त 2013

माँ शारदे वन्दना ......हरिगीतिका छंद ......






 माँ शारदे आराधना ही, ज्ञान का आधार है,
माँ वाग्देवी, वीणा वादिनि ज्ञान का भण्डार है |
माता सरस्वति, मातु वाणी ज्ञान का आगार है,
वागीश्वरी माँ साधना ही काव्य का संसार है||

हम हैं शरण में आपकी माँ ज्ञान के स्वर दीजिये ,
वातावरण सुख-शान्ति का हो जगत में वर दीजिये |
कवि हो सुहृद ,समर्थ ,सात्विक सौख्य स्वर परिपूर्ण हो,
साहित्य हो सुन्दर शिवम् सत,तथ्य शुचि सम्पूर्ण हो ||

                                          ----चित्र गूगल साभार....

गुरुवार, 1 अगस्त 2013

हरिगीतिका छंद ..... डा श्याम गुप्त .....



       हरिगीतिका चार चरण २८ मात्राओं १६-१२ पर यति वाला सममात्रिक तुकांत छंद है जिसमें 

अंत में लघु-गुरु या लघु लघु लघु रहता है एवं चारों चरणों में समतुकांत या दो-दो चरणों में 

समतुकांत होने चाहिए| यथा---

१.----- चारों चरण समतुकांत .....लघु-गुरु या  लघु लघु लघु .....

श्री राम चन्द्र कृपालु भज मन हरण भव भय दारुणं  = लघु-गुरु या   (= रु ण म् = लघु लघु लघु )

नव कंज लोचन कंज मुख कर कंज पद कंजारुणं  (= रु ण म् = | | | )

कंदर्प अगणित अमित छवि नव नील नीरद सुन्दरं   ( = न्द र म् =| | | )

पट पीत मानहु तड़ित रूचि शुचि नौमि जनकसुता वरं     (  = व र म् = | | | )  ----गो.तुलसी दास



त्यौहार प्रिय मानव जगत में सौख्य का आधार है,

उत्सव जहां होते न वह भी भला क्या संसार है|

त्यौहार बिन जीवन जगत बस व्यर्थ का व्यापार है ,

हिल मिल उठें बैठें चलें यह भाव ही त्यौहार है |    --- डा श्याम गुप्त ..


२.----- दो दो चरण समतुकांत.....व लघु-गुरु ...


चिक्करहिं दिग्गज डोल महि गिरि लोल पावक खरभरे |
 
मन हरष सब गंधर्ब सुर मुनि नाग किंन्नर दुख टरे ||
 
कट कटहिं मर्कट बिकट भट बहु कोटि कोटिन्ह धावहीं |
 
जय राम प्रबल प्रताप कोसलनाथ गुन गन गावहीं ||     ---- गोस्वामी तुलसीदास




थी सदा ही नारी निपुण हर कार्य दक्ष सदा रही |
 युग श्रम-विभाजन के समय थी पक्ष में गृह के वही |
 हाँ चाँद सूरज की चमक थी क्षीण उसकी चमक से |
वह चमक आज विलीन है निज देह दर्शन दमक से ||....  डा श्याम गुप्त ,,,


३.---- चारों चरण समतुकांत व लघु लघु लघु....

नर की कसौटी पर रहे नारी स्वयं शुचि औ सफल|

वह कसौटी है उसी की परिवार हो सुंदर सुफल |

हो जाय जग सुंदर सकल यदि वह रहे कोमल सजल |

नर भी उसे दे मान जीवन बने इक सुंदर गज़ल ||      ----डा श्याम गुप्त









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मेरे द्वारा की गयी पुस्तक समीक्षा--डॉ.श्याम गुप्त

  मेरे द्वारा की गयी पुस्तक समीक्षा-- ============ मेरे गीत-संकलन गीत बन कर ढल रहा हूं की डा श्याम बाबू गुप्त जी लखनऊ द्वारा समीक्षा आज उ...